तरीक़ुल इमान




तरीकुल इमान

इंसान अपनी फिक्र की बुनियाद पर निशातेसानिया (तरक्की या revival and progress) हांसिल करता है जो हयात, कायनात और बनी नो-ए-इन्सान के बारे मे और इस दुनियावी ज़िन्दगी से कब्ल और बाद से इन तमाम के ताल्लुक के बारे में रखता है। चुनांचे तरक्की (निशातेसानिया) के लिए इंसान की मौजूदा फिक्र मे जामेअ और बुनयादी तब्दीली लाना और उसकी जगह दूसरी फिक्र पैदा करना निहायत ज़रूरी है। क्योंकि फिक्र ही वोह चीज है जो अशिया (matter) के बारे में तसव्वुरात पैदा करती है और उन तसव्वुरात को एक मरकज़ पर जमा करती है। इंसान ज़िन्दगी के बारे में अपने तसव्वुरात के मुताबिक ही अपने रवय्ये को ढालता है। पस इंसान एक शख्स के बारे मे मोहब्बत के तसव्वुरात रखता है तो उसके साथ वैसा ही रवय्या इख्तियार करता है। इसी तरह जिस शख्स के बारे मे नफरत के तसव्वुरात रखता है तो उसके साथ सुलूक भी उसी किस्म का करता है। और जिस शख्स को वोह नहीं जानता और उसके बारे मे कोइ तसव्वुरात नही रखता तो इंसान उस के साथ रवय्या भी उसी तरह का रखेगा। गोया इंसान का रवय्या उसके तसव्वुरात के साथ जुडा हुआ है। पस जब हम इंसान के पस्त रवय्ये को तबदील करके उसे बुलंद रवय्ये वाला बनाना चाहे तो सबसे पहले हमे उसके तसव्वुरात को तबदील करना पड़ेगा।

सुरे राद : आयत 11 में इरशादे बारी ताला है:

إِنَّ اللَّهَ لا يُغَيِّرُ مَا بِقَوْمٍ حَتَّى يُغَيِّرُوا مَا بِأَنْفُسِهِمْ

अल्लाह ताला किसी कौम की हालत को उस वक्त तक नही बदलता तब तक वोह उस चीज को ना बदलें जो उनके अपने नुफूस में है।

तसव्वुरात को बदलने का एक ही रास्ता है और वोह यह की दुनियावी ज़िन्दगी के बारे में फिक्र पैदा की जाये। ताके उसके ज़रिये दुनियावी ज़िन्दगी के बारे मेें सही तसव्वुरात पैदा हो जाऐं। दुनियावी ज़िन्दगी के बारे में फिक्र उस वक्त तक नतीजाखेज तौर पर मरकूज़ नहीं हो सकती जब तक कायनात, इंसान, हयात के मुताल्लिक़ और दुनियावी ज़िन्दगी से कब्ल और बाद के साथ इन सब के ताल्लुक के बारे मेें फिक्र पैदा ना हो जाऐ। यह फिक्र कायनात, इंसान और हयात से मावरा के बारे मे एक मुकम्मल फिक्र देने से पैदा होती है, क्योंकि यह ही मुकम्मल फिक्र वो फिक्री बुनियाद है जिस पर ज़िन्दगी के बारे में तमाम अफकार की इमारत तामीर होती है। इन अशिया के बारे में मुकम्मल नुक्ता-ए-नजर देना ही इंसान के सब से बडे सवाल (यानी उकदतुलकुबरा या अकीदे) का हल है। जिस वक्त यह सवाल हल हो जाए, बाकी सवाल भी हल हो जाऐंगे क्योंकि बाक़ी सवाल या तो इसी सवाल का जुज़ है या वोह इसकी फरोआत (peripheral) हैं। लेकिन यह हल उस वक्त तक सही तरक्की (नहज़ा या निशातेसानिया) तक नही पहुँचा सकता जब तक की यह हल एक सही हल ना हो जो इंसानी फितरत के ऐन मुआफिक हो, अक़ल क़ाइल करें और दिल को इत्मिनान बख्शे।

कायनात, इंसान और हयात के बारे मे फिक्रेमुसतनीर (रौशन फिक्र) के बगैर इस सहीह हल तक पहुंचना मुमकिन नही। इसलिए निशाते सानिया के ख्वाहिश रखने वालों और तरक्की की राह पर चलने वालों को सबसे पहले इस सवाल को रौशन फिक्र (फिक्रेमुसतनीर) के ज़रिये हल करना चाहिए। ये हल ही अकीदा है और यही वोह फिक्री बुनियाद है जिस पर तर्ज़े ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के निज़ामो के बारे में हर फुरोइ फिक्र की इमारत तामीर है।



अल्लाह ताला पर इमान का तरीका

इस्लाम इस उक्दातुलकुबरा की तरफ मुतवज्जे हुआ और इंसान के सामने इस मसले का ऐसा हल पेश किया, जो फितरत के ऐन मुवाफिक़ है, अक्ल को क़ाइल करता है और दिल को इत्मिनान बख्शता है। इस्लाम ने अपने अन्दर दाखिल होने को इस हल के अक़ली इकरार पर मोकूफ किया है। यही वजह है की इस्लाम एक ही बुनियाद यानी आकीदे पर क़ायम है। वो आकीदा यह है कि इस कायनात, इंसान और हयात से मावरा एक खालिक़ मौजूद है जिसने इन सबको और हर चीज़ को पैदा किया है। वो खालिक़ अल्लाह ताला है। वो अशिया को अदम से वुजूद मे लाया। उस का वुजूद एक लाज़मी अम्र है। वो मखलूक़ नही है वरना वोह खालिक़ ना होता। यह अम्र की वोह खालिक़ है इस बात का तकाजा करता है की वो गैर मख़लूक़ हो। यह अम्र उसके वजूद की लाज़मियत का तकाजा भी करता है क्योेंकि तमाम अशिया अपने वुजूद के लिये उसकी मोहताज हैं और वोह किसी का मोहताज नही।



इंसान, हयात, कायनात मोहताज हैं

जहाँ तक अशिया के लिए एक ऐसे खालिक़ के वुजूद की ज़रुरत का ताल्लुक है तो यह इसलिए है के वोह तमाम अशिया जिन का अक्ल इदराक करती है, मसलन इंसान, हयात और कायनात सब की सब महदूद, आजिज़ और नाक़िस और मोहताज हैैंंंंंंंंंंंं। पस इंसान महदूद हैं क्योंकि वोह हर चीज मे एक हद तक ही जा सकता है, उससे ताजावुज़ नही कर सकता। लिहाज़ा वोह महदूद है। ज़िन्दगी भी महदूद है, क्योंकि इसका मज़हर ही इनफिरादी है और हवास के ज़रिये इस बात का मुशाहिदा किया जाता है कि यह एक फर्द के अन्दर ही खत्म हो जाती है। लिहाज़ा यह भी महदूद है, कायनात भी महदूद है क्योंकि यह ऐसे अजसाम का मजमुआ है जिनमे हर जिस्म महदूद है और महदूद अशिया का मजमुआ भी लाजिमी तौर पर महदूद होता है। यही वजह है के इंसान कायनात और हयात सब के सब कतई तौर पर महदूद हैं। जब हम एक महदूद चीज पर ग़ौर करते हैैंंंंंंंंंंंं तो मालूम होता है कि वोह अज़ली नहीं है। क्योंकि वोह अगर अज़ली होती तो महदूद ना होती। लिहाज़ा महदूद चीज लाज़मी तौर पर किसी और की मख़लूक़ होगी और वह ज़ात ही इंसान, हयात और कायनात की खालिक़ है। फिर यह खालिक़ या तो किसी और की मख़लूक़ होगा या ख्ाुद अपना ही खालिक़ होगा या फिर वह अज़ली होगा जिसके वजूद का होना एक लाज़मी अम्र हो। उसका किसी और की मख़लूक़ होना बातिल है क्योंकि इस सूरत मे वोह महदूद ठहरेगा। नेज़ अपने आप का खालिक़ होना भी बातिल है, क्योंकि इस सूरत मे वह एक ही वक्त मे अपना खालिक़ और अपने आप की मख़लूक़ होगा, और यह भी बातिल है। लिहाज़ा यह खालिक़ अज़ली और वाजिबुल वुजूद ही हो सकता है और यह ख़ालिक़ अल्लाह ताला है।

इंसान के हवास जिन अशया को महसूस करते है महज़ उन अशया के वुजूद से ही एक साहिबे अक़ल शख्स इस बात का इदराक करता है कि इनका कोइ खालिक़ है। क्योंकि इन तमाम अशिया में इस अम्र का मुशाहिदा किया जा सकता है कि यह नाक़िस व आजिज़ है और किसी ज़ात की मोहताज है, लिहाज़ा यह कतई तौर पर मख़लूक़ हैं। यही वजह कि इस नतीजे तक पहुंचने के लिये की खालिके मुदब्बिर की ज़ात मौजूद है; कायनात, इंसान और हयात मे से किसी एक की तरफ निगाह डालना ही काफी है। पस कायनात में मौजूद सितारो मंे से किसी एक सितारे पर निगाह डालना या ज़िन्दगी की किसी सूरतों मे से किसी भी सूरत के बारे मे गौरो खोज़ करना, और इंसान के किसी पहलू का भी इदराक करना अल्लाह ताला के वुजूद के हक़ मे कतई दलील है। चुनांचे हम देखते हैं की कुराने करीम इन अशिया की तरफ तवज्जेह दिलाता है और इंसान को दावत देता है कि वोह अपने माहौल और उस से ताल्लुक़ रखने वाली चीज़ो पर नजर डाले और यह देखे कि किस तरह यह अशिया किसी ज़ात की मोहताज हंै, तो इसके नतीजे मे इंसान एक खालिक़े मुदब्बिर के वुजूद का मुकम्मल तौर पर इदराक करे। इस बारे मे सैंकड़ो आयात वारिद हुई है। सूरे आले इमरान आयत-190 में इरशाद है :

]إِنَّ فِي خَلْقِ السَّمَاوَاتِ وَالأرْضِ وَاخْتِلافِ اللَّيْلِ وَالنَّهَارِ لآيَاتٍ لأولِي الألْبَابِ[

बेशक आसमान और जमीन के पैदा करने और दिन रात के अदल बदल कर आने जाने मे अक्ल वालो के लिए निशानियाँ है।

सूरे रोम, आयत-22 में इरशाद है :

]وَمِنْ آيَاتِهِ خَلْقُ السَّمَاوَاتِ وَالأرْضِ وَاخْتِلافُ أَلْسِنَتِكُمْ وَأَلْوَانِكُمْ إِنَّ فِي ذَلِكَ لآيَاتٍ لِلْعَالِمِينَ[

और उसकी निशानियो मे से आसमानो और जमीन की तख़लीक़ है और तुम्हारी ज़बानो और रंगो का मुख़तलिफ होना।

सूरे गाशिया, आयात - 17-22, में इरशाद है :

]أَفَلا يَنْظُرُونَ إِلَى الإبِلِ كَيْفَ خُلِقَتْ وَإِلَى السَّمَاءِ كَيْفَ رُفِعَتْ وَإِلَى الْجِبَالِ كَيْفَ نُصِبَتْ وَإِلَى الأرْضِ كَيْفَ سُطِحَتْ[

भला यह नहीं देखते कि ऊँट कैसे पैदा किया गया? आसमानो को कैसे बुलंद किया गया? और पहाड़ कैसे खडे किये गये? और जमीन को कैसे हमवार किया गया?

सूरे तारिक, आयात 5-7, में इरशाद है :

]فَلْيَنْظُرِ الإنْسَانُ مِمَّ خُلِقَ خُلِقَ مِنْ مَاءٍ دَافِقٍ يَخْرُجُ مِنْ بَيْنِ الصُّلْبِ وَالتَّرَائِبِ[

इंसान को सोचना चाहिए कि वोह किस चीज से पैदा किया गया? इंसान की पैदाइश उस उछलने वाले पानी से हुइ जो छाती और पसलियों के दरमियान से निकलता है

सूरे बक़रा, आयत - 164, में इरशाद है :

]إِنَّ فِي خَلْقِ السَّمَاوَاتِ وَالأرْضِ وَاخْتِلافِ اللَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَالْفُلْكِ الَّتِي تَجْرِي فِي الْبَحْرِ بِمَا يَنْفَعُ النَّاسَ وَمَا أَنْزَلَ اللَّهُ مِنَ السَّمَاءِ مِنْ مَاءٍ فَأَحْيَا بِهِ الأرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا وَبَثَّ فِيهَا مِنْ كُلِّ دَابَّةٍ وَتَصْرِيفِ الرِّيَاحِ وَالسَّحَابِ الْمُسَخَّرِ بَيْنَ السَّمَاءِ وَالأرْضِ لآيَاتٍ لِقَوْمٍ يَعْقِلُونَ[

इसमें कोई शक नही कि आसमानो और जमीन की पैदाइश में, रात दिन के अदल बदल के आने जाने में, और उन कश्तियों मेेें जो इंसान के नफे के लिए समंदरो मे दौड़ती फिरती हैैंंंंंंंंंंंं, और उस बारिश के पानी में जिसे अल्लाह ताला नाजिल करता है कि जिससे जमीन मुर्दा होने के बाद नई ज़िन्दगी हासिल करती है, जिसकी वजह से चोपाए ज़मीन पर फैले हुए हैं, और हवाओ के हैर फैर में और बादलोंे के आसमान और जमीन के दरमियान मुसख्खर रहने में अक्ल वालो के लिए निशानियाँ है।

इन आयात के अलावा दिगर कइ आयात में इंसान को, अशिया, अपने महौल और मुताल्लेकात पर गहरी नजर डालने की दावत दी गइ है, जिनसे इंसान खालिके मुदब्बिर के वुजूद पर इस्तिदलाल कर सकता है, ताकि अल्लाह ताला पर उसका इमान पुख्ता, अक्ली और दलील पर मबनी हो।

फितरी इमान और विजदान (emotions)

जी हाँ ! अगचे खालिक पर इमान लाना हर इंसान के अन्दर एक क़ुदरती चीज़ है। मगर विजदान (emotions) इंसान को उस इमान तक पहुचाता है। लेकिन सिर्फ विजदानी तरीक़े से हांसिल होने वाला नतीजा क़ाबिले ऐतबान नही होता है और ना ही यह नतीजा पाऐदार होता है। क्योंकि विजदान अकसर ओकात ऐसी अशिया को इमान मे शामिल करने का वजह बन जाता है जिन का हकीक मे कोइ वुजूद नही होता। लेकिन इसके बावुजूद विजदान उन्हे इमान लाने के लिए लाज़मी खयाल करता है। यों इंसान कुफ्र या गुमराही मे जा गिरता है। बुतपरस्ती, खुराफत, ओहाम विजदान की ही ग़लती का नतीजा हैं। यही वजह है के इस्लाम ने सिर्फ विजदान को इमान का तरीका करार नही दिया, कि कहीं इंसान अल्लाह ताला के लिए ऐेसी सिफात ना ठहराले जो शाने माबूदियत के मुतानाकिज़ हों। या कहींं अल्लाह को माद्दी अशिया मे मुजस्सिम ना समझ बैठे या कहीे माद्दी अशिया की इबादत से अल्लाह ताला के तकर्रुब को मुमकिन ना समझने लगे जिसके नतीजे मे कुफ्र या शिर्क कर बैठे या ऐसे ओहाम और ख्ाुराफात मे फंस जाऐ जो इमाने सादिक के मनाफी हैं। इसलिए इस्लाम ने विजदान के साथ अक्ल के इस्तेमाल को लाज़मी करार दिया और अल्लाह ताला पर इमान लाने के लिए अक्ल के इस्तेमाल को जरूरी क़रार दिया। अकीदे मे तकलीद से मना किया और अल्लाह ताला पर इमान लाने के लिए सिर्फ अक्ल को फैसला कुन करार दिया।

सूरे आले इमरान, आयत:190, में इरशाद है :

إِنَّ فِي خَلْقِ السَّمَاوَاتِ وَالأرْضِ وَاخْتِلافِ اللَّيْلِ وَالنَّهَارِ لآيَاتٍ لأولِي الألْبَابِ

बेशक आसमानो और जमीन की पैदाइश में और दिन रात के अदल बदल कर आने जाने में अक्ल वालो के लिए निशानियाँ हैं।

इमान मबनी बर अक्ल और मबनी बर दलील

इसलिए हर मुसलमान का इमान लाजमी तौर पर गोरो -फिक्र और बहसो-नजर की बुनियाद पर होना चाहिए। अल्लाह ताला पर इमान लाने में सिर्फ अक्ल को फैसलाकुन बनाना चाहिए। कुराने मजीद की कइ सूरतो में ऐसी सैकड़ांे आयात है जो अल्लाह ताला के क़वानीन का मुशानहिदा करने और अल्लाह ताला पर इमान लाने के लिए राहनुमाइ हासिल करने की खातिर कायनात में गौरो-फिक्र की दावत देती हैं।

यह सब की सब आयात इंसान गहरी सोच-विचार और गौरो-खोज़ की दावत देती हैं। ताकि इसका इमान अक्ल और दलील पर मबनी हो। यह आयात इंसान को डाराती है कि वो अपने बाप-दादा के अक़ाइद और आमाल को गौरो-फिक्र, तहक़ीक़ व जाइज़ा और उन के दुरुस्त होने के मुताल्लिक़ खुद ऐतमाद हासिल किए बगैर कुबूल ना करे। यह है वोह इमान ! जिस की इस्लाम दावत देता है। यह वोह इमान नहीं जिसको इमानुल अजाइज़ यानि बूढो का इमान कहते है, बल्की यह उस रोशन फिक्र रखनेवाले साहिबे यक़ीन शख्स का इमान होता है जो नज़र और फिक्र से काम लेता है और गौरो-ख़ोज करता है। फिर इसी फिक्रो-नजर और बहसो तफकीर के ज़रिये वोह उस अल्लाह ताला पर इमानो यकीन तक पहुँचता है जो बेपनाह कुदरत का मालिक है।

अगरचे अल्लाह पर इमान तक पहुँचने के लिए इंसान पर अक्ल का इस्तेमाल फर्ज़ है लेकिन इंसान के लिए उस ज़ात का इहाता करना मुमकिन नही जो उसके हवास और अक्ल से बालातर है। इसकी वजह यह है कि इंसानी अक्ल महदूद है। और एक महदूद क़ुव्वत चाहे कितनी ही आला हो जाए और उसकी सलाहियत मे कितना हि इज़ाफा है वोह महदूद ही रहती है और अपनी हद से आगे नही बड सकती है। चुनाचे इंसान की इदराक़ की क़ुव्वते महदूद है। मालूम हुआ की इंसान अल्लाह ताला की ज़ात के इदराक से क़ासिर है। और अल्लाह तआला की हक़ीक़त के इदराक़ से भी आजिज़ है क्योंकि अल्लाह ताला कायनात, इंसान और हयात से मावरा है और इंसानी अक्ल किसी ऐसी चीज़ का इदराक नही कर सकती जो उस से माबरा हो। इसलिए वोह अल्लाह ताला की ज़ात के इदराक से आजिज़ है। लेकिन यहँा पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि “अगर इंसान की अक्ल अल्लाह ताला की ज़ात के इदराक से आजिज़ है तो फिर इंसान अक्ली तौर पर अल्लाह ताला पर इमान कैसे लाए ? क्योंकि अल्लाह ताला पर इमान लाने का मतलब है कि अल्लाह ताला के वुजूद पर इमान लाना, और अल्लाह ताला के वुजूद का इदराक उसकी मखलूकात के वुजूद के इदराक के ज़रिये होता है, और उसकी मखलूकात कायनात, इंसान और हयात हैं, और इन मखलूकात का इदराक अक़ल के दायरे मे हैं। इसलिए अक्ल ने इन सब का इदराक किया और इनके इदराक के नतीजे मे अपने खालिक की मौजूदगी का भी इदराक किया और वोह खालिक अल्लाह ताला है। चुनाँचे अल्लाह केे वुजूद पर इमान अक्ली और अक्ल दायरे के अदंर है। इसके बर खिलाफ अल्लाह ताला की ज़ात का इदराक ना मुमकिन हैं। क्योेंकि अल्लाह ताला की ज़ात कायनात, इंसान और हयात से मावरा है। लिहाज़ा वोह अक्ल से भी मावरा है। अक्ल के लिए यह ना मुमकिन है कि वोह अपने से मावरा किसी चीज का इदराक कर सके। अक्ल की यह आजिज़ी यानी अपनेे से मावरा का इदराक ना होना इमान को तकवियत पहुँचाती हैं। यह किसी किस्म के शक का सबब नही बन सकती। क्योेेंकि जब अल्लाह पर हमारा इमान अक्ली होे तो उसके वुजूद का इदराक भी कामिल होगा। जब अल्लाह ताला के वुजूद के बारे में हमारा शऊर अक्ली हो तो अल्लाह ताला के वुजूद के बारे में हमारा यह शऊर यकीनी होगा। इससे हमें एक मुकम्मल इदराक और ख़ालिक़ की तमाम तर सिफ्फात के हवाले से यक़ीनी शऊर हासिल होता है जिस से हमें यह यक़ीन होता है की हम अल्लाह पर मज़बूत इमान रखने के बावजूद अल्लाह ताला की हक़ीक़त के इदराक़ की हरगिज़ ताक़त नही रखते। पस हम पर लाज़िम है की हम हर उस चीज को तसलीम करें जिसकी अल्लाह ने हमे ख्ाबर दी है और जिसके इदराक करने या उसके इदराक तक पहुँने से हमारी अक्ल कासिर है। और यह इंसानी अक्ल की अपनी फितरी आजिजी की वजह से है ज़ो अपने महदूद और निसबती पैमानों के ज़रिये अपने से मावरा का इदराक नहीं कर सकती। क्योंकि इस इदराक के लिए ऐसे पैमानो की जरूरत है जो ना तो निसबती हांे और ना महदूद हों और यह एक ऐसी चीज है जिसका इंसान ना मालिक है और ना कभी मालिक बन सकता है।


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About Khilafat.Hindi

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4 comments :

Dr. Virendra Singh Yadav said...

sansar roopi is choti si duniya me apar sambhavnao ke jine ka swagat hai

Publisher said...

उत्तम! ब्लाग जगत में पूरे उत्साह के साथ आपका स्वागत है। आपके शब्दों का सागर हमें हमेशा जोड़े रखेगा। कहते हैं, दो लोगों की मुलाकात बेवजह नहीं होती। मुलाकात आपकी और हमारी। मुलाकात यहां ब्लॉगर्स की। मुलाकात विचारों की, सब जुड़े हुए हैं।
नियमित लिखें। बेहतर लिखें। हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। मिलते रहेंगे।

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर…आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

Khilafat.Hindi said...

जज़कल्लाह, आप की होंसला अफ्ज़ाई के लिये. इंशा अल्लाह हम मुस्तकबिल मे हिन्दी आसान करने की कोशिश करेगे.

इस्लामी सियासत

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इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

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अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

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इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.