इस्लामी दावत को पेश करने का तरीक़ा

इस्लामी दावत को पेश करने का तरीक़ा

मुसलमान दुनिया की इमामत (क़ियादत) से अपने दीन पर कारबन्द रहने की वजह से पीछे नहीं रहे बल्कि उनके ज़वाल का आगाज उस रोज से हुआ जब उन्होंने अपने दीन से वाबस्तगी को छोड़ दिया और दीन के ताल्लुक़ से सुस्ती का मुज़ाहिरा किया। अजनबी तहज़ीब (कल्चर) को अपनी सरज़मीन में दाखिल होने की इजाजत दी और मग़रिबी नज़रियात को अपने ज़हनों में जगह बनाने का मौका फ़राहम किया। वह उसी दिन इस्लाम की फिक्री क़ियादत (intellectual leadership) से दस्तबरदार हो गए जब उस की तरफ दावत देने में ग़फलत और उन्होने इस्लाम के अहकामात नाफिज़ करने में कजी का मुज़ाहिरा किया। लिहाज़ा तरक्की की राह पर गामज़न होने के लिए इस्लामी ज़िन्दगी के फिर से आग़ाज के सिवा कोई चारा नहीं। और मुसलमान उस वक्त तक इस्लामी ज़िन्दगी का नए सिरे से आगाज नहीं कर सकते जब तक कि वह इस्लामी फिक्री क़ियादत के ज़रिये इस्लामी दावत के अलमबरदार ना बन जाएं और इसी दावत के ज़रिये उस इस्लामी रियासत को मारिज़े वुजूद (अस्तित्व) में ना ले आऐं जो इस्लाम को दुनिया के सामने पेश करने के लिए उसकी फिक्री क़ियादत की अलमबरदार हो।

इस अम्र की वज़ाहत ज़रूरी है कि मुसलमानों की निशातेसानिया के लिए इस्लामी फिक्री क़ियादत का अलमबरदार बनना सिर्फ इस्लामी दावत ही के ज़रिये ही मुमकिन है, क्योंकि यह सिर्फ इस्लाम ही है जो दुनिया की इस्लाह कर सकता है। क्योंकि हक़ीक़ी निशातेसानिया इस्लाम के बग़ैर मुमकिन ही नहीं ख्वाह यह निशातेसानिया इख्तियार करने वाले मुसलमान हो या गैर-मुस्लिम । चुनाँचे इसी बुनियाद पर लाज़मी है की इस्लामी दावत का अलमबरदार बना जाए।

यह भी ज़रूरी है कि इस दावत को दुनिया के सामने ऐसी फिक्री क़ियादत के तौर पर पेश करने की भरपूर कोशिश की जाए जिस से निज़ामे ज़िन्दगी फूटते हों। तमाम अफकार की बुनियाद इसी फिक्री क़ियादत पर हो और इन्हीं अफकार से वह तमाम तसव्वुरात जन्म लेते हों जो बिला इस्तिस्नाय (अपवाद) ज़िन्दगी के बारे में हर नुक्ता-ऐ-नज़र पर असर अंदाज होते हैं।
आज इसी इस्लामी दावत को उस तरह पेश किया जाना चाहिए जैसा कि उसे पहले पेश किया गया। और दावत में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की मुकम्मल इत्तिबा होनी चाहिए। इस दावत के पेश करने के तरीक़े की कुल्लियात और जुज़इयात मंे बाल बराबर कमी-बैशी नहीं होने चाहिए और ना ही ज़माने के इख़्तिलाफ़ का कुछ लिहाज़ करना चाहिए। क्योंकि जो चीज़ तबदील हुई वह अशकाल (शक्लें) और वसाइल (साधन) हैं ना कि मआनी व जौहर। मआनी और जौहर में अब तक ना कोई तब्दीली हुआ है और ना आइन्दा कभी होगी। चाहे जमाने पे-दर-पे गुज़रते चले जाए और अक़वाम वा मुमालिक मुख़तलिफ़ होते चले जाएं। इसलिए इस्लामी दावत को पेश करने के लिए सराहत, जुरअत, क़ुव्वत और फिक्र की ज़रूरत है के नताईज (परिणाम) और हालात को नज़र अंदाज करके इस्लामी फिक्र (सोच) और तरीक़े से जो चीज़ भी टकराती हो उसे चेलिंज किया जाए और उसमें पाए जाने वाले झूठ और खोट को खोलकर बयान किया जाए। इस बात से क़तअ-नज़र के हालात कैसे हैं और उस के नताईज क्या होंगे।

इस्लामी दावत को पेश करना इस अम्र का तक़ाज़ा भी करता है कि मुकम्मल बालादस्ती इस्लामी मब्दा (ideology) को हासिल हो, इससे क़तअ-नज़र कि यह जमहूर के मुआफिक है या मुखालिफ। लोगों की आदत के साथ चलाता है या उनसे मुतज़ाद है, लोग इस को क़ुबूल करते हैं या रद्द करते हैं और इसकी मुख़ालफत करते हैं। पस एक दाई ना तो कौम की चापलूसी करता है और ना ही ख़ुशामद से काम लेता है। वह अरबाबे इक़तिदार (सत्तापक्ष) की भी रिआयत नहीं करता। इसी तरह वह लोगों की आदत, उनकी रिवायात की कोई परवा करता है ना ही लोगों की क़ुबूलियत या उन के इन्कार को किसी गिनती में लाता है। वह सिर्फ मब्दा (ideology) को मज़बूती से थामता है। मब्दा के अलावा किसी दूसरी चीज़ को किसी शुमार व कतार में समझे बग़ैर मब्दा ही को सराहत से बयान करता है। चुनाँचे दूसरे मबादी (ideologies) के हामिल अफराद को यह नहीं कहा जाएगा कि तुम अपने ही मब्दा पर क़ायम रहो बल्कि किसी क़िस्म की जबरदस्ती के बग़ैर उन्हें अपने मब्दा की तरफ दावत दी जाएगी ताकि वोह इस को क़ुबूल करें; क्योंकि दावत इस अम्र का तक़ाज़ा करती है कि इस मब्दा के अलावा कोई दूसरा मब्दा न हो और बालादस्ती सिर्फ इस्लामी मब्दा (Islamic ideology) को ही हासिल हो।
अल्लाह का सूरे तौबा में इरशाद है:
هُوَ الَّذِي أَرْسَلَ رَسُولَهُ بِالْهُدَى وَدِينِ الْحَقِّ لِيُظْهِرَهُ عَلَى الدِّينِ كُلِّهِ وَلَوْ كَرِهَ الْمُشْرِكُونَ
“अल्लाह वोही तो है जिसने अपने रसूल को हिदायत और दीने हक़ के साथ भेजा ताकि वोह उसको तमाम अदयान पर ग़ालिब कर दे अगरचे यह बात मुशरिकों को नापसंद ही क्यों ना हो।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे तौबा, आयत: 33)

जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم इंसानियत की तरफ यह पैगाम लेकर आए तो आप صلى الله عليه وسلم ने जिस हक़ की तरफ दावत दी, आप صلى الله عليه وسلم इस पर कामिल ईमान रखते थे। आप صلى الله عليه وسلم ने पूरी दुनिया को चेलिंज किया और लोगों की आदात, रिवायात, अदयान और अक़ाइद, हुक्काम और रिआया का लिहाज़ किये बग़ैर हर सुर्ख और स्याह के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। आप صلى الله عليه وسلم ने इस्लाम के पैगाम के सिवा और किसी चीज़ को क़ाबिले इल्तिफ़ात नहीं समझा। आप صلى الله عليه وسلم ने दावत का आगाज क़ुरैश के माबूदों के ज़िक्र और उनके ऐब (बुराइयां) गिनवाने से किया। आप صلى الله عليه وسلم ने उनके ऐतक़ाद (आस्थाओं) और उनमें पाए जाने वाले बोदेपन को बेनक़ाब किया हालांकि आप صلى الله عليه وسلم उस वक्त तने-तनहा थे। वह इस्लाम जिस की तरफ आप صلى الله عليه وسلم दावत दे रहे थे, उस पर मज़बूत और ग़ैर-मुतज़लज़ल इमान के अलावा आप صلى الله عليه وسلم के पास कोई साज़ो-समान, मददगार या असलेहा (हथियार) न था। आप صلى الله عليه وسلم ने अरबांे की आदात और रिवायात की कोई परवाह न की और न ही उनके अदयान और अक़ाइद की। इस मुआमले में उनके साथ न कोई नरमी बरती और न किसी किस्म की कोई रिआयत रवा रखी।

इसी तरह इस्लामी दावत का अलमबरदार भी बेबाक और हर चीज़ को ललकारने वाला होता है; वोह आदात, रिवायात, बीमार अफकार, ग़लत तसव्वुरात को निशाना बनाता है हत्ता की अगर राय आम्मा भी ग़लत हो तो वोह उसको भी ललकारता है, ख्वाह उसे राय आम्मा के ख़िलाफ जद्दोजहद ही क्यों न करनी पड़े। इसी तरह वोह अक़ाइद और अदयान को भी चैलेंज करता है, चाहे इसके नतीजे में से उसे तआस्सुब या गुमराही पर जमने वालों के इंतकाम का निशाना ही क्यों न बनना पड़े।

इस्लामी दावत को पेश करने का तक़ाज़ा यह भी है कि इस्लाम के मुकम्मल निफाज़ को मुतमए नज़र बनाया जाये और किसी छोटे से छोटे हुक्म को भी कोई रियायत न दी जाए। दावत का अलमबरदार में इसमें किसी किस्म की चश्मपोशी या सुस्ती और कमी या ताख़ीर को क़ुबूल न करे। वोह एक अम्र को मुकम्मल तौर पर इख्तियार करे और उसको जल्द अज़ जल्द पूरा करे। वोह हक़ के मुआमले में किसी की सिफारिश को क़ुबूल ना करे। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने बनुसक़ीफ के वफ्द (प्रतिनिधि मंण्डल) की इस दरख्वास्त को हरगिज़ क़ुबूल नहीं किया की उन के बुत लात को तीन साल तक तोडे बग़ैर छोड़ दिया जाए। और न ही इस्लाम लाने के लिये उन की इस शर्त को क़ुबूल किया गया उन्हें नमाज़ माफ होगी। आप صلى الله عليه وسلم ने उनके इस मुतालबे को भी क़ुबूल नहीं किया की लात को दो साल या कम-अज़-कम एक महीने के लिये छोड़ दिया जाए बल्कि आप صلى الله عليه وسلم ने इसका क़तई तौर पर इंकार फरमाया। इस इंकार में किसी क़िस्म का तरद्दुद या नरमी न थी, बल्कि यह एक अटल फैसला था। क्योंकि इंसान या तो इमान लाए या न लाए और इसका नतीजा भी जन्नत या जहन्नम है। अलबत्ता रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने यह क़ुबूल फरमाया कि वोह बज़ाते खुद अपने हाथों से बुत लात को मुनहदिम न करें और आप صلى الله عليه وسلم ने अबू सुफयान رضي الله عنه और मुग़ीरा बिन शोबा رضي الله عنه को इस काम की जिम्मेदारी दी। जी हाँ ! आप صلى الله عليه وسلم ने सिर्फ कामिल अकीदा और उसके मुकम्मल निफाज़ को क़ुबूल फरमाया। अक़ीदा इसी बात का तक़ाज़ा करता है। अलबत्ता जहां तक इसके निफाज़ के लिये मुख़्तलिफ़ ज़राये और वसाइल का तआल्लुक़ तो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इन्हें इख्तियार फरमाया क्योंकि इनका अक़ीदे की हक़ीक़त से कोई तआल्लुक़ नहीं। चुनाँचे इसीलिये इस्लाम की दावत के लिये मुकम्मल फिक्र की हिफाज़त लाज़मी है। और फिक्र या तरीक़े मे किसी क़िस्म की चश्मपेाशी के बग़ैर उसके मुकम्मल निफाज़ की हिफाज़त लाज़मी है। और फिकराह (idea) या तरीक़ा (method) में किसी किस्म की चश्मपोशी के बग़ैर इसके मुकम्मल निफाज़ की हिफाज़त ज़रूरी है। अलबत्ता बक़दरे ज़रूरत ज़राये के इस्तेमाल में कोई नुक़सान नहीं।

इस्लाम की दावत को पेश करने का तक़ाज़ा यह भी है कि इससे तआल्लुक़ रखने बाला हर अमल एक मुतय्यन (निश्चित) नसबुलऐन (उद्देश्य) के लिए होना चाहिए। हामिले दावत हमेशा इस नसबुलऐन का तसव्वुर ज़हन में रखे और उसके हुसूल (प्राप्ति) के लिये मुसलसल कोशिश में लगा रहे। मक़सद के हुसूल के लिये इस कोशिश में आराम का तसव्वुर भी ज़हन में न लाए। चुनाँचे यही वजह है कि हामिले दावत अमल के बग़ैर सिर्फ फिक्र पर राजी नहीं होता और ना उसे मदहोश करने वाला ख़याली फलसफा समझता है। इस तरह वह बे-मक़सद फिक्र और अमल पर राज़ी नहीं होता है और ना वह इस दावत को कोल्हू के बैल की गर्दिश के मानिन्द समझता है, जो जमूद और ना-उम्मीदी पर खत्म होती है। बल्कि वोह फिक्रो अमल के इम्तिज़ाज के ज़रिये एक मुतय्यन मक़सद को अमली तौर पर हासिल करने और उसे आलमे वजूद में लाने की कोशिश करता है। चुनाँचे रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मक्का में इस्लाम की फिक्री क़ियादत को पेश किया, यहाँ तक कि आप صلى الله عليه وسلم समझ गए कि मक्के का मुआशरा इस्लाम को एक निज़ामे हयात के तौर पर क़ुबूल करने के लिये तैयार नहीं। चुनाँचे आप صلى الله عليه وسلم ने फिर मदीने के मुआशरे को तैयार फरमाया, वहाँ एक इस्लामी रियासत क़ायम की और इस्लाम को नाफिज़ किया। उसके बाद इस दावत को दूसरों के सामने पेश किया। फिर आप ने अपनी उम्मत को तैयार फरमाया ताकि वोह आप के बाद इस दावत की अलमबरदार बने और आप صلى الله عليه وسلم के मुतय्यन करदा रास्ते पर चले। इसलिये इस वक्त जब कि मुसलमानों का ख़लीफा मौजूद नहीं, यह अम्र इंतहाई नगुज़ीर है कि इस्लामी दावत इस्लाम की तरफ दावत और इस्लामी ज़िन्दगी की नये सिरे से आग़ाज़ करने के लिये ऐसी इस्लामी रियासत को वुजूद में लाने की तरफ हो जो इस्लाम को नाफिज़ करे और पूरी दुनिया तक इस्लाम के पैगाम को ले जाए। यूं यह दावत उम्मत के अंदर इस्लामी ज़िन्दगी की फिर से शुरूआत करने की दावत से रियासत की जानिब से दुनिया के सामने इस्लामी दावत को पेश करने की तरफ मुन्तक़िल हो जाती है और आलमे इस्लाम में अन्दरूनी दावत से आलमी दावत की तरफ मुन्तक़िल हो जाती है।

यह ज़रूरी है की इस्लाम की दावत के दौरान ज़िन्दगी के मुताल्लिक़ ग़लत तसव्वुरात को सही करना और अल्लाह के साथ मज़बूत तआल्लुक़ इस्तवार करने को वाज़ह तौर पर बयान किया जाए। नेज़ लोगों को उनकी मुश्किलात का हल भी बताया जाए ताकि यह दावत ज़िन्दगी के तमाम मैदानों में एक जिंदा और फआल दावत की सूरत इख्तियार करे। चुनाँचे जिस तरह रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم मक्के में लोगों के सामने इस आयत की तिलावत फरमाया करते थे:

تَبَّتْ يَدَا أَبِي لَهَبٍ وَتَبَ

“अबू लहब के दोनों हाथ तबाह हो जाएं (टूट जाएं )” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-मसद, आयत:1)

उसी वक्त आप صلى الله عليه وسلم इन आयात कि भी तिलावत फरमाया करते थे:
إِنَّهُ لَقَوْلُ رَسُولٍ كَرِيمٍ ۞ وَمَا هُوَ بِقَوْلِ شَاعِرٍ قَلِيلا مَا تُؤْمِنُونَ

“बेशक यह एक साहिबे करामत रसूल का क़ौल है, और यह किसी शायर का क़ौल नहीं, मगर तुम बहुत कम ईमान लाने वाले हो।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-हाक्क़ा, आयत:41-42)

और उसी तरह आप صلى الله عليه وسلم उसी वक्त इस आयत की भी तिलावत फ़रमाते:

وَيْلٌ لِلْمُطَفِّفِينَ ۞ الَّذِينَ إِذَا اكْتَالُوا عَلَى النَّاسِ يَسْتَوْفُونَ ۞ وَإِذَا كَالُوهُمْ أَوْ وَزَنُوهُمْ يُخْسِرُونَ

“नाप तौल में कमी करने वालों के लिये हलाकत हो, जब वोह लोगों से लेते है तो पूरा नाप लेते हैं और जब उन्हें तौल कर देते हैं तो कम देते है।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे मुतफ्फिफीन, आयत:1-3)

आप صلى الله عليه وسلم यह भी फरमाया करते थे :

إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ لَهُمْ جَنَّاتٌ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الأنْهَارُ ذَلِكَ الْفَوْزُ الْكَبِيرُ

“बेशक जो लोग इमान लाए और नेक आमाल किये, उनके लिये बाग़ात हैं जिनके नीचे नहरें बहती हैं यह बहुत बड़ी कामयाबी है।“ (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-बुरूज, आयत:11)
और मदीने में लोगों के सामने यह तिलावत फरमाया करते थे :

وَأَقِيمُوا الصَّلاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ

“नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दिया करो।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-बक़रा, आयत:11)

इसी तरह यह भी तिलावत फरमाया करते थे :
ِانْفِرُوا خِفَافًا وَّثِقَالا وَجَاهِدُوا بِأَمْوَالِكُمْ وَأَنْفُسِكُمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ
“निकलो जिहाद के मैदान में ख्वाह (तुम्हारी तबीयत में) हलकापन हो या भारीपन (दोनों हालतों में निकलो) और अल्लाह के रास्ते मे अपने अमवाल और अपनी जानों से जिहाद करो।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अत-तौबा, आयत:41)

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم यह भी तिलावत फरमाया करते थे :

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا تَدَايَنْتُمْ بِدَيْنٍ إِلَى أَجَلٍ مُسَمًّى فَاكْتُبُوهُ

“ऐ इमान वालों! जब तुम किसी मुकर्ररा (निश्चित) मुद्दत के लिये कोई कर्ज़ा दो तो उसे ज़बते तहरीर में ले आया करो।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-बक़रा, आयत:212)

और रसूल صلى الله عليه وسلم उनके सामने यह भी तिलावत फरमाया करते थे :
كَيْ لا يَكُونَ دُولَةً بَيْنَ الأغْنِيَاءِ مِنْكُمْ
“ताकि दौलत सिर्फ तुम्हारे मालदारों के बीच गर्दिश ना करती रहे।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-हशर, आयत: 7)

आप صلى الله عليه وسلم इन आयत की तिलावत फरमाया करते थे :

لا يَسْتَوِي أَصْحَابُ النَّارِ وَأَصْحَابُ الْجَنَّةِ أَصْحَابُ الْجَنَّةِ هُمُ الْفَائِزُونَ
“अहले जहन्नुम और जन्नत (हरगिज़) बराबर नहीं, अहले जन्नत ही कामयाब होने वाले है।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-हशर, आयत:20)

इसलिये इस्लामी दावत उन तमाम निज़ाम हायहयात पर मुश्तमिल हो जो ज़िन्दगी की तमाम तर मुश्किलात को हल करते हैं। क्योंकि इस्लामी दावत की कामयाबी का राज़ उसके इस तरह ज़िन्दा होने में है कि वोह इंसान की, इंसान होने की बुनियाद पर, तमाम मुश्किलात को हल करे और उसके अंदर एक हमागीर इन्क़लाब बरपा करे।

इस दावत के हामिलीन उस वक्त तक दावत की ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकते और इस के तक़ाज़ो से ओहदा बरआ नहीं हो सकते जब तक की वोह अपने (नुफूस के) अंदर कमाल के हुसूल का अलाव न जलाएं और हर वक्त हक़ीक़त की खोज न लगाते रहें। जब तक कि वोह अपनी मालूमात की जाँच पड़ताल न करते रहें ताकि अपने इल्म को हर अजनबी आलाईश से पाक-साफ कर दें। और इन अफकार से हर उस चीज़ को दूर करें जिस के मुताल्लिक़ एहतमाल हो के कही यह अपनी मुमासलत की वजह से इन अफकार से चिमट ना जाए ताकि हामिलीने दावत के अफकार साफ और शफ्फाफ हों और बेशक अफकार का साफ और शफ्फाफ होना ही कामयाबी और कामयाबी के तसलसुल की ज़मानत है।

फिर इस दावत के हामिलीन के लिये यह भी ज़रूरी है कि वोह अपनी ज़िम्मेदारियों को यह समझ कर पूरा करें कि इन्हें अल्लाह तआला ने हम पर फर्ज़ किया है और अल्लाह तआला की रज़ा की खातिर खंदा पेशानी और खुशी से उन्हें क़ुबूल करें। अपने आमाल का बदला ना मंागे और लोगों की जानिब से शुकरिये का इन्तज़ार भी ना करें और सिर्फ अल्लाह तआला की खुशनूदी के तलबगार हों।
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