विश्व हिन्दू परिषद (वि. एच. पी.) भारत कि इस्लामी हैसियत के लिये फतवा चाहती है!!!

अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहम करने वाला है

विश्व हिन्दू परिषद (वि. एच. पी.) भारत कि इस्लामी हैसियत के लिये फतवा चाहती है!!!

आज इस कुर्राऐ अर्ज़ की एक इंच ज़मीन पर भी दारुल इस्लाम मौजूद नहीं है. यह बात अरब की सरज़मीन, जहां शहर मक्का और मदीना मौजूद हैं और जहां मुसलमानों की सब से मुक़द्दस मस्जिदें मौजूद है, वहां के लिये भी उतनी ही सही है. ऐसे में यह बड़ी मज़ाहिक़ाख़ेज़ (हास्यास्पद) बात है की कोई इस बात की मांग करे की भारत को अमन की सरज़मीन (दारुलअमान या दारुलइस्लाम) क़रार दिया जाए. इस्लाम की मुक़द्दस क़ुतुब यानी सिर्फ क़ुरआन और सुन्नत ही इस बात का ताय्युन कर सकती है, न की मैं आप और कोई आलिमे दीन. यह बड़ी बदक़िस्मती की बात है की मौजूदा दौर में ऐसे कुछ ही उलमाऐ दीन हैं जो दारुलइस्लाम और दारुलहरब जैसी इस्तिलाहात के मायने समझ सकते हैं. इसलिये वि. एच. पी को इस तरह का फतवा मांगने पर दरगुज़र किया जा सकता है.

यह बात अच्छी तरह ज़हन नशीन कर लेनी चाहिए की इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ हर वोह जगह जहां ख़िलाफत के ज़रिये इस्लामी शरीअत का निफाज़ किया गया था, इस्लामी सरज़मीन है, इसके बावजूद भी कि बाद में उस पर इस्तेमार (imperialist) का तसल्लुत हो गया हो या उसे टुकड़े टुकड़े करके क़ौमी ममलिकतो (nation states) में बांट दिया गया हो. चूँकि वोह कभी इस्लामी सरज़मीन थी इसका मतलब यह भी नहीं है की वोह अब भी दारुलइस्लाम हैं. यानी इन की हैसियत इस्लामी सरज़मीन की है जो दारुलकुफ्र में तब्दील हो चुकी है. आज के इन दारुलकुफ्र को दोबारा दारुलइस्लाम बनने के लिये कुछ इस्लामी शरायत के पैमाने को सख्ती के साथ पूरा करना होगा, वरना यह दारुल कुफ्र ही रहेंगी. इन शरायतों को पूरा करने में आज के अरब मुमालिक भी नाकामयाब है. चूंकि सउदी अरब भी इस शर्त को पूरा नहीं करता है, इसलिये वह भी दारुलकुफ्र है. किसी आलिम का फतवा दारुलहरब को दारुलइस्लाम में तबदील नहीं कर सकता है. ऐसे में यह बात साफ ज़ाहिर है की भारत भी एक दारुलकुफ्र है.

अल-कस्सानी (मतूफी 587 हिजरी) ने हनफी फिक़ की मशहूर किताब, जिसकी इत्तिबा का दावा उलमाऐ हिन्द भी करते हैं, ने कहा है की, अहनाफ (हनफी मज़हब के उलमा) में इस बात पर कोई इख़्तिलाफ नहीं है की दारुलकुफ्र उस वक्त दारुलइस्लाम बन जाता है जब इस्लाम के क़वानीन वहां ग़ालिब हो जाते है. हमारे भाईयों में इख़्तिलाफ इस बात पर है की दारुलइस्लाम किस तरह से तबदील होता है और दारुलकुफ्र बन जाता है. हमारे इमाम (इमाम अबू हनीफा) का कहना है कि, दारुलइस्लाम तीन सूरतों में दारुलकुफ्र बन जाता है: (1) जब इस्लामी क़ानून की जगह कुफ्र पर मबनी क़ानून ले लेता है, (2) जब मुल्क (दारुलइस्लाम) की सरहदें दारुलकुफ्र की सरहदों के साथ बिना किसी मुआहिदे के मिल जाएं (3) और जब मुसलमानों या ज़िम्मियो (ग़ैर-मुस्लिमों शहरी) की कोई हिफाज़त बाक़ी ना रह जाए. [बदाउस्सनाई, जिल्द-7, सफा-131]

इब्ने क़य्यिम (मतूफी 751 हिजरी) : एक क़दीम और मुस्तनद आलिमे दीन जो अहले हदीस के ज़ुमरे में आते है, का कहना है, जमहूर उलमा का कहना है, 'दारुलइस्लाम वह है जहाँ मुसलमान जाते है और रहते हैं और जहाँ इस्लामी क़वानीन ग़ालिब होते है. अगर लोग (मुसलमान) एक जगह रहते है और इस्लाम ग़ालिब हो जाता है, तो वोह दारुलइस्लाम है। लेकिन अगर इस्लाम वहाँ ग़ालिब नहीं है, तो ऐसी जगह (को) दारुलइस्लाम नहीं (समझा जा सकता) है अगरचे वोह रियासत (दारुल इस्लाम) से बिल्कुल क़रीब हो. ताइफ मक्का के बिल्कुल क़रीब था (उस वक्त जब मक्का दारुलइस्लाम था) लेकिन वोह उस वक्त तक दारुलइस्लाम का हिस्सा नहीं बना जब तक उसे फतह नहीं कर लिया गया. (इब्ने क़य्यिम, किताब अहकाम अहलुल ज़िम्मा, जिल्द-1, सफा-366)

सउदी अरब शरीअत का महज़ जुज़वी निफाज़ करता है जो दारुलइस्लाम होने की शरायत को पूरा नहीं करता. उसी तरह अगर पाकिस्तान या इरान का अपने आप को इस्लामी जमहूरियत कहने से वोह दारुलइस्लाम नहीं बन जाता है. फिलिस्तीन जो आज हमास के ज़ेरे इक़तिदार है दारुलइस्लाम नहीं है. ध्यान रहे यहाँ मिसालें इसराईल, अमरीका और दूसरे ममालिकों की नहीं पेश कि जा रही है बल्कि उन मुस्लिम ममालिकों की मिसाल पेश की जा रही है जिन्हें आज इस्लामी ममालिक समझा या कहा जाता है. जब की भारत इन मुस्लिम ममालिकों की फहरिस्त में भी नहीं आता इसलिये उसे वह लक़ब देना जो आप चा रहे, नामुमकिन है. माज़ी में भारत उस्मानी खिलाफत के ज़ेरे तहत आता था इसलिये यह भी इस्लामी सरज़मीन का हिस्सा है.

दर हक़ीक़त तमाम ममालिकों की इस्लामी शरीअत में सिर्फ दो ही तरह की हैसियत होती है: दारुलइस्लाम या दारुलकुफ्र. बाक़ी दूसरी अक़साम इन्हीं दोनों के ज़ेरे तहत आती है. अगर कोई सरज़मीन दारुल इस्लाम नहीं है तो उसका दारुलकुफ्र होना लाज़मी अम्र है. दारुलकुफ्र और दारुलहरब हम-मआनी (synonymous) अलफाज़ हैं.

अब सवाल यह आता है की दारुलइस्लाम होने की क्या शरायत है? इसकी तीन बुनियादी शरायत मुन्दरज़ा-ज़ेल है:

1. उस रियासत का एक मुस्लिम हाकिम होना चाहिए जो शरीअत के क़वानीन के मुताबिक़ हुकूमत करे, और मुकम्मल शरीअत के मुताबिक़, और सिर्फ शरीअत के मुताबिक़.

2. निज़ामे हुक्मरानी हक़ीक़ी मायनों में (de fecto and de jure) अपनी पूरी कामिलीयत के साथ शरीअते इस्लामी पर मबनी होनी चाहिए.

3. अमाना (security) मुसलमानों के हाथ में होना चाहिए.

इस तारीफ के मुताबिक़ यह ग़लतफहमी नहीं होनी चाहिए की सउदी अरब का मौजूदा हुक्मरान, बादशाह अब्दुल्लाह, एक इस्लामी हुक्मरान है जो उपर ज़िक्र की गई शरायत को पूरा करतें है. दरहक़ीक़त वोह इनमें से किसी भी शरायत, जिस में पहली शर्त भी शामिल है, पूरी नहीं करते. मगर यह एक अलग बहस है जिस की तफ्सील में जाना अभी हमारा मौज़ूअ नहीं है. अभी यह समझना काफी है की भारत अमन की सरज़मीन यानी दारुलअमान की हैसियत से बहुत दूर है.

और अब हम उस बुनियादी मसले की तरफ तवज्जह करते है जिस की वजह से वी. एच. पी ने भारत को दारुल इस्लाम होने का एलान करने पर मुसलमानों से इसरार किया. वह यह की क्या भारत के खिलाफ जिहाद करना चाहिए या नहीं? इसका जवाब दो हिस्सों पर मुश्तमिल है:

1. दिफाई जिहाद (Defensive Jihad) का हुक्म सभी लोगों पर हमेशा लागू है. एक शख्स हमेशा हर क़िस्म के ज़ुल्म और ज़्यादती से अपनी जान और माल की हिफाज़त कर सकता है और उसे करनी चाहिए. ऐसा करना ज़ाती तहफ्फुज़ के मुतरादिफ है जिस से किसी को कोई इख़्तिलाफ नहीं हो सकता. यानी अगर एक शख्स पर दूसरा शख्स हमला करता है तो उस पर अपनी हिफाज़त करना लाज़मी है, चाहे इस दिफाई जद्दोजहद में हमलावर मारा जाए, इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता की वोह हमलावर हिन्दू हो या मुसलमान. दंगों से मुताल्लिक़ मामलात इसी ज़ुमरे में आते है.

2. इक़्दामी जिहाद (Offensive Jihad)के मसले पर अकसर लोग इख़्तिलाफ करते है. इस्लाम में इक़्दामी जिहाद कोई अजनबी चीज़ नहीं है मगर यह उन अफराद और जमातों पर फर्ज़ नहीं है जो दारुलइस्लाम के क़याम की कोशिशें कर रहे है. हालांकि इस्लामी रियासत के लिये यह न सिर्फ ज़रूरी है बल्कि फर्ज़ भी है, बस देरी सिर्फ इस्लामी रियासत (ख़िलाफत) का किसी मुस्लिम सरज़मीन पर क़याम की है. जब तक की ख़िलाफत दोबारा क़ायम हो, इक़्दामी जिहाद उन मुस्लिम दुनिया की फौजों की ज़िम्मेदारी है जो इसकी सलाहियत रखती है. यह उनकी ज़िम्मेदारी है की वोह नाइंसाफी का खात्मा करें और अमन क़ायम करें. लेकिन एक बार जब मुस्लिम दुनिया में कहीं ख़िलाफत का दोबारा क़याम हो जाएगी तो तमाम मुस्लिम सरज़मीनो को हासिल करने की जद्दोजहद की जाएगी और नाफरमान हाकिमों के खिलाफ इस्लामी फ़ौजें इक़्दामी जिहाद करेंगी. अफराद के ज़रिये तशद्दुद (violence) का इज़हार एक ग़लती है मगर अकसर यह तशद्दुद का इज़हार अवाम की तरफ से उस ज़ोरो-जब्र (high handedness) के खिलाफ होता है जिसे आज रियासती दहशत गर्दी (state-sponsored terrorism) के नाम से जाना जाता है.

मुस्लिम तंज़ीमो का माज़रत ख्वाना रवैया क़ाबिले मज़म्मत है. इन खुद-साख्ता उलमा को यह समझ लेना चाहिए की इज्तिहाद करने का काम सिर्फ मुजतहिद का है जो क़ुरआन और सुन्नत, और हालते हाज़रा के गहरे मुताले के बाद अपनी राय देता है (यानी इज्तिहाद करता है). यह काम उन सतही ज़हनो का नहीं है जिन्होने आज समाज में अपना कुछ वक़ार बना रखा है. अगर कोई भी मुस्लिम तंज़ीम इस तरह का फतवा या राय देती है जो इस फ़तवे या राय की हैसियत उस क़ागज़ से ज़्यादा नहीं है जिस पर वोह लिखा गया है.

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