दस्तूर व क़ानून


दस्तूर व क़ानून
लफ्ज़ क़ानून एक अजनबी इस्तिलाह (शब्दावली) है और उन लोगों के नजदीक इसका मआनी है: वोह हुक्म जिसे हुक्मरान सादिर करते है ताकि लोग उस पर चले। क़ानून की तारीफ यूँ की गई है कि: “इंसानो के तआल्लुक़ात के बारे में क़वाइद (नियमों) का वोह मजमुआ (समूह), जिन की पैरवी करने पर हुक्मरान लोगों को मजबूर कर दे।” किसी भी हुकूमत के बुनियादी क़ानून के लिये ‘दस्तूर’ का लफ्ज़ इस्तेमाल किया जाता है। दस्तूर की बुनियाद पर वुजूद में आने वाले निज़ाम से निकलने वाले क़ानून (अहकामात) पर भी लफ्ज़ क़ानून का इतलाक़ होता है। दस्तूर की तारीफ यूं की गई है : वह क़ानून जो रियासत और रियासत के निज़ामे हुक्मरानी की शक्ल व सूरत मुतय्यन (निर्धारित) करे, और इनमें मौजूद हर अथोरिटी की हुदूद और ज़िम्मेदारियों को वाज़ह करे।” या “दस्तूर वोह क़ानून है जो अवामी अथोरिटी यानी हुकूमत को मुनज्ज़म करता है और हुकूमत के साथ अफराद के तआल्लुक़ात की हुदूद मुतय्यन करता है, अफराद पर हुकूमत के हुक़ूक़ और ज़िम्मेदारी, और इस तरह हुकूमत पर अफराद के हुक़ूक़ और ज़िम्मेदारी की वज़ाहत (निशानदेही) करता है।”
दस्तूर मुख़्तलिफ़ तरीक़ो से वजूद में आये। कुछ दस्तूर क़वानीन की शकल में मुरत्तिब किए गए, बाअज़ दसातीर ने आदात और रस्मो रिवाज से जन्म लिया है, जैसा के बरतानिया का दस्तूर। इस तरह बाअज़ दस्तूर ऐसे होते है, जिन्हें कौमी असेम्बली की वोह कमेटी वज़ा करती है जिसको उस वक्त यह अथोरिटी हासिल होती है। वही दस्तूर वज़ा करती है और वही इस दस्तूर में तब्दीली के तरीक़ेकार का ताय्युन करती है। फिर यह कमेटी खत्म हो जाती है और उसकी जगह वोह अथोरिटी (कुव्वतें) ले लेती है जो इस दस्तूर की बदौलत वुजूद में आती है, जैसा कि फ्राँस और अमरीका में हुआ। दस्तूर और क़ानून को जिन मसादिर से अख्ज़ किया जाता है, उनकी दो अक़साम है। पहला मसदर (स्त्रोत) वो मनबा है, जिस से दस्तूर व क़ानून बराहेरास्त फूटते है। जैसे मआशरती आदात, मज़हब, क़ानूनी माहिरीन की आरा (परामर्श), अदालतों के फैसले, अदल व मसावात (समानता) के उसूल वग़ैरा। इसको क़ानूनी मसदर (legislative sources) कहा जाता है। इसकी मिसाल मग़रिबी मुमालिक बरतानिया, अमरीका वग़ैरा का दस्तूर है। दूसरा मसदर तारीख़ी मसदर हैं, जिस से दस्तूर या क़ानून को अख्ज़ या नक़ल किया जाता है। फ्राँस का दस्तूर और इसी तरह बाअज़ इस्लामी मुमालिक जैसे तुर्की, मिसर, इराक़, शाम का दस्तूर इस की मिसालें है।
यह लफ्ज दस्तूर और लफ्ज़ क़ानून की इस्तलाह का खुलासा है। इसका निचोड यह है कि रियासत मुताअद्दिद मसादिर से, ख्वाह वोह कानूनी तशरीइ मसदर हो या तारीख़ी, कुछ मुतय्यन अहकामात को इख्तियार (तबन्नी) करती है और उन पर अमल करने का हुक्म देती है। रियासत की जानिब से तबन्नी करने के बाद यह अहकामात दस्तूर बन जाते है। फिर अगर यह अमूमी (आम) अहकामात हो तो इन को दस्तूर कहा जाता है, और अगर यह ख़ास अहकामात में से हो तो इन को क़ानून का नाम दिया जाता है।
आज मुसलमानों को जिस सवाल का जवाब देना है, वो यह है कि आया इस इस्तिलाह का इस्तेमाल जायज़ है कि नहीं? इस का जवाब यह है कि वोह अजनबी अलफाज़, जिनके इस्तिलाही मआनी की हो और यह इस्तिलाह मुसलमानों की इस्तिलाह के मुखालिफ हो, तब इनका इस्तेमाल जायज़ नहीं। मसलन इज्तिमाई अदल (social justice) का लफ्ज़ क्योंकि इससे मुराद एक मख़सूस निज़ाम है, जिस का खुलासा यह है कि गरीबी की तालीमी और तिब्बी सहूलियात की ज़मानत दी जाए और मुलाज़िमों और मज़दूरों के हुक़ूक़ की हिफाजत की ज़मानत दी जाए। यह इस्तिलाह मुसलमानों के इस्तिलाह के खिलाफ है। क्योंकि मुसलमानों के नज़दीक अदल ज़ुल्म की ज़िद (विपरीत) है और तालीम और तिब्बी सहूलियात की ज़मानत तमाम इंसानो के लिये है, चाहे वोह गरीब हो या अमीर। इसी तरह मोहताज और ज़इफ के हुक़ूक़ की ज़मानत उन तमाम लोगों के लिये है, जो इस्लामी रियासत के ज़ेरे साया रहते हो, चाहे यह लोग मुलाज़िम हो या ना हों, मजदूर हो या किसान या कुछ और। इस के बरअक्स अगर वोह लफ्ज़ ऐसी इस्तलाह के तौर पर हो जिस का मानी और मफहूम मुसलमानों के यहां मौजूद हो तो उसका इस्तेमाल जायज़ हो, मसलन लफ्ज़ ‘ज़रबिया’ (टैक्स) का लफ्ज। क्योंकि इससे मुराद वोह माल है, जो रियासत का इंतजाम चलाने के लिये लोगों से लिया जाता है और रियासत का इंतजाम चलाने के लिये लोगों से माल लेने का तरीका मुसलमानों के यहाँ भी पाया जाता है। इसलिये लफ्ज टैक्स का इस्तेमाल जायज़ है। इसी तरह लफ्ज़े ‘क़ानून’ और ‘दस्तूर’ के मआनी है कि रियासत कुछ मख़सूस मुतय्यन अहकामात इख्तियार करती है, लोगों के लिये इसका ऐलान करती है, इस पर अमल करना लाज़मी करार देती है और इन्हीं अहकामात के मुताबिक़ लोगों पर हुकूमत करती है। यह मुसलमानों के यहाँ भी पाया जाता है। चुनाँचे लफ्ज ‘क़ानून’ और ‘दस्तूर’ के इस्तेमाल में कोई अमर मानेअ (रूकावट) नहीं। चुनाँचे दस्तूर व क़ानून से मुराद वो अहकाम है, जिनको खलीफा अहकामे शरीया से तबन्नी करे। अलबत्ता इस्लामी दस्तूर व क़वानीन और ग़ैर इस्लामी दस्तूर और क़वानीन के दरमियान बड़ा फर्क़ है। क्योंकि गैर इस्लामी क़वानीन और दस्तूर का मसदर आदात और अदालतों के फैसले वग़ैरा होते है। इनकी तासीस वोह तासीसी असेम्बली (legislative assembly) करती है जो दस्तूर वज़ा करती है और अवाम की मुंतखब करदा असेम्बली क़ानून वज़ा करती है। क्योंकि इनके नज़दीक अवाम ही ताक़तो-क़ुव्वत का सरचश्मा है और इक़तिदारे-आला अवाम को हासिल है। जब कि इस्लामी दस्तूर और इस्लामी क़वानीन का मसदर सिर्फ किताबुल्लाह और सुन्नते रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم है, और इन की तासीस मुजतहेदीन के इज्तिहाद से होती है। जिनमे से खलीफा मुतय्यन अहकामात की तबन्नी करता है और उनके ज़रिये हुकूमत करता है, लोगों के लिये इन की पाबंदी करना लाज़िम होता है। क्योंकि बालादस्ती शरीअत को हासिल है और शरई अहकामात के इस्तिंबात के लिये इज्तिहाद करना तमाम मुसलमानों का हक़ है। इज्तिहाद फर्ज़े-किफाया है, और अहकामात को इख्तियार करने (तबन्नी करने) का हक़ सिर्फ ख़लीफा को हासिल है।
यह बहस क़ानून और दस्तूर के अलफाज़ के इस्तेमाल होने के हवाले से थी। जहाँ तक अहकामात की तबन्नी की ज़रूरत के सुबूत की बात है, तो मुसलमान अबुबक्र رضی اللہ عنھ के ऐहद से लेकर आखिरी खलीफा के ऐहद तक, मख़सूस अहकामात की तबन्नी करने और उन अहकामात पर अमल का हुक्म देने के उसूल पर क़ायम रहे। हाँ। अलबत्ता यह तबन्नी मख़सूस अहकामात की होती थी, और यह इन तमाम आम अहकामात की तबन्नी नहीं हुआ करती थी, जिनके मुताबिक रियासत हुकूमत चलाती थी। रियासत ने बाअज़ अदवार के अलावा कभी आम अहकामात की तबन्नी नहीं की। आम अहकामात की तबन्नी की मिसाल यह है कि अय्यूबियों ने शाफई मज़हब की तबन्नी की और उस्मानी खिलाफत ने अबू हनीफा के मज़हब की तबन्नी की।
अब यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि एक हमागीर दस्तूर और आम क़वानीन को इख्तियार करना मुसलमानों के मफाद में हैं या उनके मफाद के खिलाफ है? इस का जवाब यह है कि एक हमागीर दस्तूर और तमाम अहकामात के बारे में आम क़वानीन बनाना जिद्दत पसंदी और इज्तिहाद में मददगार साबित नहीं हो सकता। यह ही वजह है कि कुरूने ऊला यानी सहाबा رضی اللہ عنھم, ताबेइन (रह.) और तबेताबेइन (रह.) के ऐहद में मुसलमान इस बात से इजतिनाब करते रहे की खलीफा तमाम अहकामात की तबन्नी करे। बल्कि वोह सिर्फ उन मख़सूस अहकामात की तबन्नी पर इकतिफा करते रहे, जो वहदते हुक्म (हुकूमत के एक होने) वहदते तशरीअ (क़ानून के एक होने) वहदते इदारा (इंतेज़ामी उमूर के एक होने) के लिये नागुज़ीर हो। इस बुनियाद पर कहा जा कसता है कि जिद्दत पसंदी और इज्तिहाद के फरोग़ के लिये बेहतर यह है कि रियासत के लिये कोई ऐसा हमागीर दस्तूर न हो, जो तमाम अहकामात पर मुश्तमिल हो। बल्कि रियासत का दस्तूर उन आम अहकामात पर मुश्तमिल हो, जो रियासत की शक्लो सूरत का ताय्युन करे और उस की वहदत की बक़ा की ज़मानत दे। इज्तिहाद और इस्तिंबात को वालियों और क़ाज़ियो पर छोड़ दिया जाए। ताहम यह उस सूरत में होगा कि जब इज्तिहाद आम हो और लोग इज्तिहाद कर सकते हो। जैसे के ऐहदे सहाबा رضی اللہ عنھم ताबेइन (रह.) और तबेताबेइन (रह.) में था। अगर तमाम लोग मुक़ल्लिद हों और मुजतहिद शाज़ ओ नादिर ही पाए जाते हों तो इस सूरत में रियासत के लिये ज़रूरी है कि वो ऐसे अहकामात की तबन्नी करे कि जिन के मुताबिक़ ख़लीफा, वाली और क़ाज़ी बगैरा लोगों पर हुकूमत कर सकें। क्योंकि इस के बग़ैर अल्लाह तआला के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करना मुश्किल हो जाएगा और वाली और क़ाज़ी मुख्तलिफ और मुतज़ाद तक़लीद का शिकार हो जाऐंगे। तबन्नी तदरीस, यानी वाक़ये को समझने और दलील की मारिफत से हासिल करने के बाद होगी। इसके अलावा अगर वालियों और क़ाज़ियो को उनकी अपने इल्म के मुताबिक़ हुकूमत करने की इजाजत दे दी जाए, तो एक ही रियासत बल्कि एक ही विलाया मे अहकामात मुख्तलिफ होंगे। बल्कि हो सकता है कि हुकूमत अल्लाह तआला के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ ही ना हो। इसलिये इस्लामी रियासत पर लाज़मी है कि वोह आज मुसलमानों कि इस्लाम से अदम-आगाही (unawareness) का इदराक़ करते हुए मख़सूस अहकामात की तबन्नी करे।
यह तबन्नी मुआमलात और उकूबात के बारे में होना चाहिए, ना कि अकाइद और इबादात के बारे में, और यह तबन्नी तमाम अहकामात के लिये उमूमी नोइयत की होनी चाहिए। ताकि रियासत के मुआमलात मुनज्ज़म हो सके और मुसलमानों के तमाम उमूर शरई अहकामात के मुताबिक़ सरअंजाम पाए। इसलिये रियासत जब भी अहकाम की तबन्नी करे और दस्तूर और क़वानीन वज़ा करे, तो सिर्फ और सिर्फ अहकामे शरीया की इत्तेबा करे। इसके अलावा किसी और चीज़ को अख्ज़ न करें। बल्कि किसी चीज़ की तदरीस भी ना करे। लिहाज़ा अहकामे शरीया के अलावा कोई और चीज़ को इख्तियार नहीं किया जाएगा। इससे कतए नज़र कि वो चीज़ इस्लाम के मुखालिफ है या इस्लाम से मुवाफिक़त रखती है। चुनाँचे रियासत अशिया को हुकूमती तहवील में ले लेने (nationalization) की पालिसी को इख्तियार नहीं कर सकती, बल्कि वोह अवामी मिल्कियत के अहकामात को ही इख्तियार करेगी। इसलिये हर वोह चीज़ जिस का ताल्लुक़ फिक्र और तरीक़े से है उस में वोह लाज़मी तौर पर वोह शरई अहकामात ही की पैरवी करेगी। अलबत्ता वोह क़वानीन और निज़ाम, जो फिक्र और तरीक़े से तआल्लुक़ नहीं रखते, और उन से ज़िन्दगी से मुताल्लिक़ कोई ख़ास नुक्ता-ऐ-नज़र का इज़हार नहीं होता, मसलन इंतेज़ामी क़वानीन या इदारों की तरतीब और ढाँचे या इस क़िस्म की दूसरी चीज़े, तो यह वसाइल और उसलूब में शुमार होते हैं। यह सांइस, सनअत और फुनून की तरह है। रियासत इन्हें इख्तियार करके लोगों के उमूर की देखभाल की तंज़ीम (प्रबन्ध) कर सकती है। जैसा कि उमर बिन खत्त्ताब رضي الله عنه ने किया कि जब आप ने दफातिर को तरतीब देना चाहा तो आपने इस तरतीब को ऐहले फारस से अख्ज़ किया। यह इन्तेज़ामी और फन्नी अशिया न तो दस्तूर है, न कि क़वानीने शरीया है। यह दस्तूर में दाखिल नहीं। इसलिये यह इस्लामी रियासत की जिम्मेदारी है कि इसका दस्तूर अहकामे शरीया यानी इस्लाम पर मबनी हो, और इसका यानी इसका दस्तूर भी इस्लामी हो और क़ानून भी इस्लामी हो।
जब रियासत किसी हुक्म की तबन्नी करे, तो वोह उसकी तबन्नी शरई दलील की मज़बूती की बुनियाद पर करे, और उसके साथ-साथ वोह दरपेश मुश्किल को भी सही तौर पर समझे। चुनाँचे रियासत पर लाज़िम है की वोह पहले मसले को अच्छी तरह समझने के लिये पहले मसले की तहक़ीक़ करे क्योंकि सबसे ज़रूरी चीज़ मसले को समझना है। फिर इस मसले का हुक्मे शरई मालूम करे। फिर इस हुक्मे शरई की दलील की तदरीस करें और फिर दलील की मज़बूती की बुनियाद पर इस हुक्म की तबन्नी करे। यह शरई अहकामात या तो मुजतहेदीन में से किसी मुजतहिद की राय की बुनियाद पर इख्तियार किये जाएं, जिस की दलील मालूम हो, और उसकी दलील की क़ुव्वत पर इत्मिनान हो। या फिर यह शरई अहकामात किताबुल्लाह, सुन्नते रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم, इज्माऐ सहाबा رضی اللہ عنھم और क़ियास से शरई इज्तिहाद के ज़रिये अख़ज़ करके इख्तियार किये जाएं। ख्वाह यह इज्तिहाद जुज़ई हो, यानी यह एक ही मसले पर इज्तिहाद हो।
चुनाँचे रियासत जब माल के बीमा की मुमानियत (निषेद होने) की तबन्नी का इरादा करे, तो ज़रूरी है कि वह पहले इस अम्र की तहक़ीक़ करे कि साज़ो सामान का बीमा क्या होता है? इसको समझे, फिर मिल्कियत के हुसूल के ज़राऐ की तदरीस करे, फिर मिल्कियत से मुताल्लिक़ अल्लाह तआला के हुक्म का बीमे के मसले पर इंतेबाक़ करे और फिर इसके बारे में हुक्मे शरई की तबन्नी करे। यह ही वजह है कि दस्तूर और हर क़ानून के लिये एक इब्तिदाइया का होना ज़रूरी है जो इस मज़हब (मसलक) की वज़ाहत करे जिस से वोह क़ानूनी दफा ली गई हो और इस दलील की वज़ाहत करे जिस पर एतमाद किया गया हो। या इस दलील की वज़ाहत करे जिस से इस क़ानूनी दफा का दुरुस्त इज्तिहाद के ज़रिए इस्तिंबात किया गया हो, ताकि मुसलमानों को यह मालूम हो कि रियासत दस्तूर और क़वानीन से मुताल्लिक़ जिन अहकामात की तबन्नी करती है, वह अहकामे शरीया है और उन्हें सही इज्तिहाद के ज़रिये मुस्तनबित (deduce) किया गया हो। क्योंकि मुसलमानों पर रियासत के अहकामात की इताअत इस सूरत में फर्ज़ है जब रियासत के तबन्नी करदा अहकामात अहकामे शरिया पर मबनी हो। इस बुनियाद पर रियासत दस्तूर और क़वानीन के लिये ज़रिये अहकामे शरीया की तबन्नी करती है, ताकि वोह इन अहकामात ज़रिये उन लोगों पर हुक्मरानी करे, जो इसके ज़ेरे साया रहते है।
बतौरे मिसाल हम मुसलमानों के सामने आलमे इस्लाम के लिये इस्लामी रियासत के दस्तूर का मुजूज़ा खाका रखते हैं, ताकि वह इसे पढ़ें और उस इस्लामी रियासत के क़याम के लिये अमली कोशिश करें जो दुनिया के सामने इस्लामी दावत पेश करेगी। यहाँ यह बात पेशे नज़र रहे की यह मजूज़ा दस्तूर किसी खास मुल्क के लिये नहीं या उस का मक़सूद कोई ख़ास इलाक़ा या ख़ास खित्ता नहीं है, बल्कि यह दस्तूर इस्लामी दुनिया की इस्लामी रियासत के लिये है।
(... आगे पढें मुसव्वदाऐ दस्तूर मे)
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