मदनी मुआशरे की बिना - 12

मदनी मुआशरे की बिना - 12

अल्लाह सुब्हानहू व तआला ने इंसानों को जो जिबिल्लते बक़ा की हिस से नवाज़ा है उसका एक तक़ाज़ा येह है के इंसान आपस में मिलकर रहें, चुनांचे इंसानों का मिलकर रहना एक फित्री और क़ुदरती अम्र है। लेकिन येह भी हक़ीक़त है के मेहज़ इंसानों का मिलना, किसी मुआशरे को जन्म नहीं देता, इससे तो एक सिर्फ़ एक जमाअ़त पैदा होती है और येह एक जमाअ़त ही की षक्ल में रहती है जब तक मेहज़ इसे मिलने पर ही इक्तिफ़ा कर लिया जाता है। लेकिन अगर इससे आगे बढ़कर आपस में एैसे तअ़ल्लुक़ात इस्तवार हो, जिनमें मुशतरक मफ़ादात हांे और मुशतरक ख़तरात से हिफ़ाज़त तो फिर मुआशरे वुजूद में आते हैं अलबत्ता कोई एक मुत्तहिद मुआशिरा वजूइ में नहीं आता जब तक के उन तअ़ल्लुकात के बारे में नुक़्त-ए-नज़र में यकसानियत न हो, अफ़्कार में वहदत न हो, आपसी रज़ा एक न हा,े ना पसंदीगी में यकसानियत हो, उनके एहसासात में हम आहंगी हो और एक एैसा निज़ाम हो जिससे वोह अपने मसाइल का हल अख़ज़ कर सकें, तो फिर मुआशरा वुजूद में आता है। इसलिये ज़रूरी हो जाता है के एक मुआशरे में मौजूद अफ़्कार, एहसासात और उन पर क़ायम निज़ाम को परखा जाये, क्योंके यही एक मुआशरा तशकील देते है और इनहीं से किसी मुआषिरे को किसी दूसरे मुआषिरे से मुतमय्यिज़ किया जा सकता है। 

अब रसूल सल्ल0 की मदीना आमद के वक़्त वहां के मुआशरे पर हम उसी बुनियाद पर नज़र डालेंगे ताके उसकी हैइय्यत को समझा जा सके। मदीने में उस वक़्त तीन जुदा-जुदा जमाअ़तें बसतीं थीं, पहली जमाअ़त मुसलमानों की जिनमें मुहाजिर और अंसार दोनों थे और एैसी जमाअ़त की अकसरियत थी, दूसरी जमाअ़त मुश्रिकीन की थी जिनमें क़बाइले औस ओ ख़ज़रज के वोह लोग थे जो ईमान नहीं लाये थे और अक़लियत में थे जबके तीसरी जमाअ़त यहूदियों की थी। यहूदियों की जमाअ़त को हम चार अक़्साम में मुनक़सिम कर सकते हैं, एक क़िस्म मदीने के अन्दर थी यानि बनी कै़नुक़आ और तीन किस्में मदीने के बाहर यानि बनी नज़ीर, यहूदे ख़ैबर और बनी क़ुरैज़ा। यहूद गो के मदीने के अन्दर भी थे और मुआशरे के क़रीब भी, लेकिन वोह मदीने के मुआशरे का हिस्सा कभी नही थे क्योंके उनके अफ़्कार, उनके एैहसासात और उनका निज़ाम जिससे वोह अपने मुआमिलात तय करते थे वोह अहले मदीने से मुख़्तलिफ़़ था।
रहे मुश्रिक तो वोह थे ही बहुत थोड़े और मदीने में जो इस्लामी माहौल के जे़रे असर थे, इस बिना पर उन मुिश्रकीन का इस्लामी मुआशरे के ताबेअ़ रहना, गो के वोह मुस्लिम नहीं हुये थे, क़तई ना गुज़ीर था। रहे मुहाजिर और अंसार तो येह एक अ़क़ीदा इस्लाम पर थे, चुनांचे उनके अफ़्कार और एैहसासात एक थे और इस्लाम ने उन की ज़िन्दगियों और मुआमिलात को एक दूसरे से हम आहंग बना दिया था। क्योंके येह एक रिश्ता इस्लाम से जोड़े हुये थे, इसलिये येह फ़ित्री और ना गुज़ीर था के इनके मुआमिलात अफ़्कार ओ एैहसासात में मुताबिक़त हो। इस्लाम ही की बुनियाद पर आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुसलमानों के आपसी तअ़ल्लुक़ात को ढाला और उनको एक भाई चारे के रिश्ते में पिरो दिया, एैसा भाई चारा जिसके मरत्तब असरात मेहसूस किये जा सकते हों, चाहे मुआमिला आपसी हो तिजारती लेन-देन का ज़िन्दगी के दीगर उमूर का। इसको मलहूज़ रखते हुये आप (صلى الله عليه وسلم) के भाई हज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब रज़ि0 हुये, आप (صلى الله عليه وسلم) के ग़ुलाम हज़रत ज़ैद रज़ि0 आप (صلى الله عليه وسلم) के चचा हज़रत हमज़ा रज़ि0 के भाई बनाये गये, हज़रत अबू बक्र रज़ि0 को ख़ारिजा इब्ने ज़ैद रज़ि0 का भाई बनाया गया।

इसी तरह मुहाजिरीन ओ अंसार में यही मुवाख़ात हुई, हज़रत उमर, उत्बान इब्ने मालिक अल ख़ज़रजी के भाई बने, हज़रत तलहा इब्ने उबैदउल्लाह को हज़रत अबू अय्यूब अन्सारी का भाई बनाया, हज़रत अ़ब्दुर्रहमान इब्ने अ़ौफ़ को हज़रत सअ़द इब्ने रबीअ़ का भाई। इस मुवाख़ात का एक माद्दी पहलू भी था, अंसार अपने मुहाजिर भाईयों के साथ निहायत फ़िराख़दिली से पेश आये जिसने इनके दर्मियान रिश्तों को एक मज़बूत बुनियाद दी। अंसार ने अपने माल और असासे मुहाजिरीन के साथ बांटे, साथ ज़िराअ़त की और तिजारत में भी शरीक बनाया। मुहाजिरीन के ताजिरों ने तिजारत शुरू कर दी, हज़रत अ़ब्दुर्ररहमान रज़ि0 इब्ने अ़ौफ़ मक्खन और पनीर बेचा करते थे। इसी तरह दूसरे अपनी-अपनी तिजारत करते थे। जिसने तिजारत नहीं की वोह ज़िराअ़त की तरफ़ बढ़ा, जैसे हज़रत अबू बक्र रज़ि0 हज़रत उमर रज़ि0 और हज़रत अ़ली रज़ि0 उन ज़मीनों पर काश्त करते थे जो अंसार ने उन्हें दी थीं। हुज़ूर अकरम सल्ल0 ने फ़रमाया था के जिस किसी के पास ज़मीन हो वोह उस पर काश्त करे या अपने भाई को दे दे। इस तरह मुसलमान अपनी रोज़ी कमा रहे थे। इनके अलावा एक छोटी सी जमाअ़त और थी जिनके पास न माल था और न ही काम, रहने के लिये घर भी मयस्सर नहीं था, येह ज़रूरतमंद थे। येह लोग न मुहाजिर थे और न ही अंसार, येह अ़रब के दूसरे इलाक़ों से मदीने आये थे और इस्लाम क़ुबूल कर लिया था। आप (صلى الله عليه وسلم) ने इन हज़रात को अपनी इनायत में रखा और रहने के लिये मस्जिद का वोह हिस्सा दे दिया जिस पर छत डाली गई थी, येह लोग वहीं रहते और वहीं इनका ठिकाना था। यही लोग असहाबे सुफ़्फ़ा केहलाये मुहाजिरीन ओ अंसार में से वोह लोग जिन्हें अल्लाह तआला ने रिज़्क़ में वुसअ़त फ़रमाई थी, वोह इन के लिये खाने का बंदोबस्त कर देते थे। इस तरह आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुसलमानों के तर्ज़े ज़िन्दगी और आपसी तअ़ल्लुक़ात को एक मज़बूत बुनियाद पर तामीर किया और इस तरह मदीने में एक मुआशरा वुजूद में आया जिसकी पायदार बुनियादें इतनी क़वीं थीं के वोह एक तरफ़ तो कुफ्ऱ के रास्ते में आहनी दीवार साबित हो और दूसरी तरफ़ मुश्रिकीन और यहूदियों की साज़िशों और चालाकियों की मुज़ाहिमत कर सके। ये इस्लामी मुआशरा और इसकी वहदत बदस्तूर क़ायम रही और आप (صلى الله عليه وسلم) इससे मुतमइन रहे।

जहां तक मुश्रिकीने मदीने का सवाल है तो येह अपना कोई असर इस इस्लामी मुआशरे पर मुरत्तब नहीं कर पाये, येह लोग  खुद को इस्लामी हुक्म के ताबेअ़ कर चुके थे और रफ़्ता-रफ़्ता इनका वजूद ख़त्म हो गया। अलबत्ता यहूदियों का मुआमिला येह था के इनका मुआशरा तो इस्लाम से पहले भी अपनी जुदागाना हैसिय्यत रखता था और इस्लाम के बाद उनके और इस्लामी मुआशरा के फ़र्क़ और यहूदियों और मुसलमानों का फ़र्द की हैसिय्यत से फ़र्क़ वाज़ेह तर होता गया। इसलिये ज़रूरी था के उनसे तअ़ल्लुक़ात एक मुअैय्यन बुनियाद पर तय किये जायें। चुनांचे आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुसलमानों के मौक़़फ वज़अ़ किये जो एक मुसलमान को एक ग़ैर मुस्लिम से तअ़ल्लुक के लिये दरकार थे। मुस्लिम रियासत के अफ़्राद के माबैन तअ़ल्लुक़ात को आप (صلى الله عليه وسلم) बाक़ायदा तह्रीर करके एक किताबी षक्ल दी जिसमें मुहाजिरीन और अंसार के ज़िक्र के साथ यहूदियों पर भी शुरूत आइद की र्गइं। इस किताब में एक तरफ़ मुसलमानों के दर्मियान रिश्तों की बुनियाद और दूसरी तरफ़ यहूदियों के मुख़तलिफ़ क़बाइल से मुसलमानों के तअ़ल्लुक़ात की बुनियादें वज़अ़ की गयीं। किताब की शुरूआत इस तरह की गई।
بسم االه الرحمن الرحيم هذا كتابٌ من محمّد النبي بين المؤمنين المسلمين من قريش و يثرب ومن تبعهم فلحق بهم و جاهد معهم أنهم أمـة واحدة من دون النَّاس
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है, येह किताब मो. सल्ल0 की तरफ़ से क़ुरैश (मुहाजिरीन) के और यसरब (अंसारे मदीना) मुसलमानों के और उनके जिन्होंने इनकी इत्तिबा की (ईमान लाये) साथ आकर मिल गए और साथ जिहाद किया सो येह लोग दूसरे लोगों से जुदा एक ही उम्मत हैं।
फिर लिखा गया के मुसलमानों के माबैन तअ़ल्लुक़ात की बुनियाद क्या होगी। मोमिनों के आपसी रिश्तों के बयान में यहूदियों का भी ज़िक्र किया, कोई मोमिन किसी काफ़िर के लिये एक मोमिन को क़त्ल नहीं कर सकता। न ही एक मोमिन किसी मोमिन के मुक़ाबले एक काफ़िर की मदद कर सकता है। अल्लाह की हिफ़ाज़त सब के लिये है और येह किसी को मजबूर नहीं करती। मुसलमान दूसरे लोगों से जुदा, आपस में एक दूसरे के दोस्त हैं। वोह यहूद जो हमारा इत्तिबाअ़ करें सो उनके लिये हमारी मदद है और वोह बराबर हैं। उनके साथ कोई ज़ुल्म नहीं होगा और उनके किसी दुश्मन को मदद नहीं दी जायेगी। मुसलमानों का अम्न और मुसालिहत एक है। एक मुसलमान अल्लाह के रास्ते में क़िताल में दूसरे मुसमलान को छोड़ कर किसी से अम्न नहीं कर सकता। सिवाय इसके के येह अ़द्ल पर हो। इस मतन में यहूद से मुराद सिर्फ़़ वही नहीं है जो मदीने के अतराफ़ में थे बल्के हर वोह शख़्स जो इस इस्लामी रियासत का हिस्सा बनना चाहे और उसके क़ानून के ताबेअ़ होना चाहे, उसके लिये नुस्रत, मुसलमानों से मुआमिलात में मुसावात होगी और वोह  इस रियासत का ज़िम्मी क़रार पायेगा।
इस किताब में जिन यहूद का बिल-उ़मूम ज़िक्र किया गया उनकी निशानदही किताब के आखि़र में मुसलमानों के तअ़ल्लुक़ात के वज़अ़ किये जाने के बाद की गई है, इनमें बनी अ़ौफ़ और बनी नज्जार वग़ैरह के यहूद शामिल हैं। उनकी इस्लामी रियासत में हैसिय्यत का तअै़य्युन किया गया है। इस किताब में बड़ी सराहत से येह बात तय की गई के उनके मुसलमानों से मुआमिलात के तअै़य्युन की बुनियाद इस्लाम होगी और वोह इस्लामी क़वानीन के मातेहत और इस्लामी रियासत की रइऱ्यत की हैसिय्यत से रहेंगे। इसमें येह बात भी सराहत से ज़ब्ते तह्रीर लाई गई है के यहूद हर उस बात और हुक्म के पाबंद होंगे जो इस्लामी रियासत की मसलेहत के तक़ाज़े की बिना पर सादिर की जाये। एैसे चंद नुक़ात हस्बे ज़ैल हैं।

1)    यहूदियों के क़रीबी दोस्त उन्हीं की तरह हैं। येह लोग मोहम्मद सल्ल0 की इजाज़त के बग़ैर ख़ुरूज नहीं करेंगे।
2)    यसरब (मदीने) इस सहीफ़े में लिखे गये लोगों की पनाहगाह होगी।
3)    इस सहीफ़े में शामिल लोगों के माबैन अगर कोई एैसी बात हो जाये जिससे फ़साद या बुराई का अंदेशा हो तो येह मुआमिला अल्लाह और उसके रसूल सल्ल0 की तरफ़ (फै़सल के लिये) आयेगा।
4)    क़ुरैश मक्के को या उनके हलीफ़ों को पनाह नहीं दी जायेगी।
इस तरह मदीने के अतराफ़ के यहूदियों की हैसिय्यत का तअै़य्युन किया गया और इन पर पाबंदी आइद की गई के मदीना छोड़कर नहीं जा सकते सिवाय आप (صلى الله عليه وسلم) की यानि इस्लामी रियासत की इजाज़त के साथ। और येह मदीने की हुरमत के पाबंद होंगे यानि वोह न तो मदीने पर जंग कर सकेंगे और न एैसे फ़रीक़ की मदद करेंगे जो मदीने पर हमला करे। वोह न तो क़ुरैश मक्के को और न उनके किसी हलीफ़ को पनाह देंगे और येह के उनके किसी भी मुआमले में इख़्तिलाफ़ की सूरत में फै़सला हुज़ूर सल्ल0 फ़रमायेंगे। यहूदी इन शराइत को मानेंगे और उनके क़बाइल जैसे बनी अ़ौफ़, बनी नज्जार, बनी हारिस, बनी साइदा, बनी जश्म, बनी अल-औस बनी सअ़लब के यहूदियों ने इस किताब या सहीफ़ा पर अपने दस्तख़त किये। इस किताब पर बनी क़ुरैज़ा बनी नज़ीर और बनू कै़नुक़ाअ़ उस वक़्त शामिल नहीं हुये लेकिन उसके थोड़े ही अरसे बाद वोह भी उन शराइत को मान गये और दस्तख़त कर दिए अब सारे यहूद इस्लामी रियासत के ताबेअ़ और उसके क़ानून के पाबंद हो गये थे।

इस मुआहिदे की रू से आप (صلى الله عليه وسلم) ने तमाम मदीने और आस पास के यहुदियों के तअ़ल्लुक़ात ओ मुआमिलात को एक रियासत के ताबेअ़ कर दिया जो अभी वुजूद पज़ीर ही थी और इन यहूदियों के साथ-साथ आस-पास के यहूदियों के मुआमिलात को वाज़ेह तौर पर इस्लामी हुक्म का पाबंद बना दिया। अब इस मुआहिदे की रू से यहूदियों की तरफ़ से किसी ग़द्दारी या कोई और हरकत को फ़ौरी ख़तरा नहीं था और इस रियासत की मुआषरती बुनियाद मुस्तहकम थी। इस बात पर आप (صلى الله عليه وسلم) ने इतमिनान किया और अपनी तवज्जोह किसी पेश आयन्द जंग की तैयारी की तरफ़ कर दी ताके दावत की राह में हाइल मुम्किना माद्दी रुकावटों को हटा सकें।
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