खिलाफत का कयाम एक सपना भर नहीं है

खिलाफत का कयाम एक सपना भर नहीं है
कुछ लोगों के लिए यह फ्रिक कि मुस्लिमों को एक झंड़े तले एक इस्लामिक मुल्क में एकजुट किया जा सकता है, एक दूर की कौड़ी का सपना लगता है। हाल ही में कुछ ‘एक्सपर्ट’ कहे जाने वाले यह सडा-गला विचार लेकर आगे आये कि 21 वीं शताब्दी में मुस्लिम इत्तेहाद बस एक मजाक भर है और उनके मुताबिक यह एक नामुम्किन बात है । इसके लिए वोह मुस्लिम दुनिया में महामारी के रूप में फैल रही फिक्रापरस्ती और फूट को दलीले की हैसियत से पेश करते हैं।
लंदन स्थित मानव-विकास एक्सर्पट मदावी अल-राशिद कहता है, ‘‘मैं देख सकता हूँ कि पूरी अरब दुनिया फिर्कापरस्ती-कौमपरस्ती वाली हिंसा की दलदल में धसती जा रही है, तो मुझे नहीं लगता कि यह खिलाफत हक़ीकत में हो सकती है . . . . . आज, 21वीं शताब्दी में, यह मुस्लिम दाईयों का सपना भर है।’’
सउदी विशलेशक (analyst) फारिस बिन हूज़ाम का कहना है,‘‘इस्लामिक मुल्क का क़याम उनका बड़ा सपना है, मगर ऐसा कभी हो सकता है, यह लगता नहीं।’’ भारतीय पत्रकार और लेखक कातिब मुबशर अकबर न्यूजवीक में लिखते हैं, ‘‘मुसलमान खिलाफत को दौबारा क़ायम करना चाहते हैं, मैंने आलिमों को कहते सुना है कि यह ख्याल बिल्कुल बकवास-बेतुका है।’’
खिलाफत की वापसी के खिलाफ दी जा रही कुछ दलीलें ज़ेल है:-
1.    मुस्लिम दुनिया सकाफती (culturally) रूप से विभिन्नताओं (diversity) से भरी है।
2.    कौमियत (Nationalism) की जड़े उनमें बड़ी गहरी है।
3.    मजहबी इकतिलाफ शिया-सुन्नी इत्तेहाद में रूकावट हैं।
4.    मुस्लिम अलग-अलग मुल्कों में रहना पसंद करते हैं।
5.    अमेरिका इसे कभी होने नहीं देगा।

1. मुस्लिम दुनिया सकाफती (culturally) रूप से विभिन्नताओं (diversity) से भरी है
यह सच है कि मुस्लिम दुनिया में ज़बानों, खान-पीन, कपड़ो और दूसरे रिवाजों की कसरत है। मगर दर हक़िक़त यह विभिन्ना कोई माने नहीं रखती जब उम्मत पर शासन करने के लिये एक रियासती व्यवस्था की बात आती है। सियासती व्यवस्थाए लोगों के एक जैसे भोजन या एक जैसी रंगत से पैदा नहीं होती, बल्कि यह बनती है एक जैसे इक़्तिसादी (economic), सियासती (political) और मुआशरी (social) कानून को अपनाकर ताकि लोगों पर हुक्मरानी की जा सके। आजकल ज्यादातर मुस्लिम दुनिया में सियासती निज़ाम मगरिबी दस्तूरों (western constitutions) से जैसे फ्रांस के दस्तूर से अख्ज़ किया गया है, जो आज मुस्लिम मुल्कों मे, उनकी नकली आजादी के बाद, हुकूमत और सियासस्त की बुनियाद बन गया है।
मिसाल के तौर पर इराक़ को लिजिए, वहाँ की कुर्द क़ौम एक आजाद कुर्द राज्य चाहती है । फिर भी मुश्किल इराक और दूसरे मुस्लिम देशो में भी जाति-नस्ल की नहीं बल्कि निज़ाम और व्यवस्था की है। सद्दाम हुसैन ने न केवल कुर्दो को अजियतें पहुंचाई बल्कि उसने अपनी सभी लोगों को बुरी तरह से अज़ीयतें दी, फिर चाहे वो कुर्द हों, अरब हो, सुन्नी हो या शिया। उसने तो अपने दो दामादों को भी भार डाला। कुर्द लोगों की बाक़ी सारी उम्मत की तरह सक़ाफत (culture) इस्लामिक है। वे इस्लामिक सकाफत के उतने ही हिस्सेदार है जितने बाक़ी मुस्लिम चाहे वे तुर्क हो, इराक़ी हों या कहीं ओर के। तारीख के सबसे प्रसिद्ध कुर्द सलाहूद्दीन अयूबी (रह.) थे। उनकी इज्जत ने केवल कुर्द बल्कि सभी मुस्लिम करते है, फिर चाहे वे किसी भी नस्ल या जाति से हों. ऐसा इस लिये की उन्होने बैतुल मक़दस की मस्जिद को सलीबियों से आज़ाद करवाया, जो कि इस्लाम की तीसरी सबसे मुक़द्दस मस्जिद है। अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फरमाया:- “मोमिन एक दूसरे के लिये नर्म और रहमदिल है और एक दूसरे पर मुहब्बत और शफक़त दिखाते है और उसकी मिसाल एक जिस्म के मानिन्द है की अगर जिस्म का एक हिस्सा भी ठीक हालत मे नहीं होता तो पूरा जिस्म उसके खातिर बुखार और बेचैनी महसूस करता है”.
और  इसके अलावा क्या शरीअत में कुछ ऐसा है कि जो किसी फर्द पर उसी नस्ल या जाति की बिना पर अयाद न हो सकता है ? पूरी दुनिया के मुस्लिम, सभी रंग व नस्लों के दिन में पांच बार नमाज़ पढ़ते है, रमज़ान में रोजे रखते हैं, सदक़े देते है और मक्का हज को जाते है। वे आपस मे निकाह करते है, अपने बच्चों को तालीम देते है, अपनी जमीन की हिफाज़त करते है, टैक्स अदा करते है, कम्पनियाँ कायम करते हैं और गुनहगारों को सज़ा देते है। यानी उन सब की ज़रूरते और तर्ज़े ज़िंदगी एक ही और जिसकी इस्लामी जडें भी बहुत गहरी है. दारुल कुफ्र मे रहते हुए भी वोह इस्लामी तहज़ीब से चिमटे हुए है.

कौमियत की जड़े बड़ी गहरी हैं
मुबाशर अकबर कहता है, ‘‘ जरा पाकिस्तानी खलीफा को बंगलादेशी लोगों से मनवा कर देखें।’’ बेशक खलीफा कोई एक पाकिस्तानी खलीफा या एक बंगलादेशी खलीफा या कोई अरब खलीफा नहीं होता। वह एक मुस्लिम होता है जो इस्लामी रियासत का लीडर या क़ाईद होता है और वोह अल्लाह के नाज़िल करदा कानून से लोगों के मुआमलात की देखरेख करता है। कौमियत की सबसे बड़ी कमजोरी या गलती यह है कि यह किसी कौम को वक्ती या आरजी तौर पर तब तक एक रख सकता है जब तक सामने कोई दुशमन या खतरा हो। एक कौम के लोग कभी भी दूसरी कौम के नेता की इताअत नहीं करेंगे क्योंकि कौमियत का रब्त उन्हें व्यक्ति के राष्ट्र या क़ौम के परे देखने ही नहीं देता। अमन के हालात में ऐसे मुल्कों में नस्लवाद, इलाकावाद, जातिवाद जैसी समस्याऐं हमेशा मुंह उठाये खड़ी रहती हैं। अतः खलीफा एक लीडर है जो इस्लाम के मफादों को सामने रखता है, न कि किसी खास जाति, कुनबे या कौम की नुमाइन्दगी करता है.  और इस तरह वह न बंधा होता औ न ही उसका झुकाव होता है किसी खास कुनबे, जाति, नस्ल या कौम की तरफ। उसका उम्मत से जुड़ाव/रब्त उस अकीदे की वजह से होता है जिससे सारी उम्मत जुड़ी है। इस वजह से खलीफा इस्लामिक अकीदे की बिना पर पूरी दुनिया के मुस्लिमों को एक कर सकता हैं।
अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने फरमाया:- ‘‘सुनो और इताअत को अगरचे तुम पर एक हब्शी गुलाम को अमीर बना दिया जाए जिसके बाल किशमिश (के रंग) की तरह हो।’’ (बुखारी)
मिसाल के तौर पर बंगाली और पाकिस्तानी सभी मुस्लिम है। पाकिस्तान में आये तबाही मचाने वाले जलजले के दौरान बंगलादेश के मुस्लिमानों ने और पूरी दुनिया भर के मुस्लिमानों ने खुले दिल से अरबों रूपयों की मदद भेजी. जलजले के शिकार अपने भाईजों को मुस्लिमानों की अकसिरीयत मगरिब ताक़तो के द्वारा खींची गई इन सरहदों और बेईमान व दलाल हुक्मरानों के जरिये जबर्दस्ती थोपे गये राष्ट्रियता के झंड़ो, नक़ली स्वतत्रंता दिवस और सरहदी चैकियों को नहीं मानती है। दर हक़िक़त में ये हुक्मरान ही वे लोग हैं जिन्हौने उनके दर्मियान नफरत के बीज बोये। आम मुस्लिम तो एक उम्मत है, जिनकी एक ही इस्लामिक सकाफत (संस्कृती) है। उम्मत के अंदर इस्लामिक तसव्वुरात बड़ी गहराई से बैठे हुए हैं । मगरिबी ताक़तों के लिए अपनी साम्राज्यवादी विदेश नीति को चलाने मे सबसे बडी परेशानी का सबब है यही कारण (यानी इस्लामिक तसव्वुरात), जिसकी वजह से उनको सबसे ज्यादा मुखालफत का सामना न केवल मक़ामी (स्वदेशी) लोगों से करना पड़ रहा बल्कि यह मुखालिफत मुस्लिम दुनिया के हर कौन से हो रही।
कौमियत एक घिसा-पिटा उसूल है जिसने 19वीं शताब्दी में मुस्लिम दुनिया में उस दौरान जड़े पकडी जब उम्मत फिक्री इनहितात (वैचारिक पतन) के दौर से गुज़र रही थी। आज वैश्विकरण होने के साथ ही, तरक्की करते यातायात और आधुनिक संचार साधानों के जरिए इस्लाम का संदेश करोड़ों लोगों तक पलभर में पहुंच सकता है। जैसे-जैसे उम्मत करीब आती जा रही है वतनपरस्ती (देशभक्ति), कौमियत (राष्ट्रवाद) और नस्लवाद की बेड़ियों को तोड कर इतिहास की रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया जायगा।
अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने फरमाया, “वोह हम मे से नहीं है जो अस्बियत (राष्ट्रवाद/नस्लवाद) की तरफ बुलाऐ या वोह जो अस्बियत के लिये लडे य वोह जो अस्बियत की खातिर मर जाये”. (अबू दाउद)

मजहबी (या मस्लकी/ Sectarian) इख्तिलाफ
इस बात की बड़ी चर्चा है कि मुस्लिम दुनिया में लेबनान, सीरिया, इराक और ईरान के शियाओं मे इत्तेहाद के सबब सुन्नी रियासतों के खिलाफ शिया इस्लाम जड पकड रहा है. इराक के गृह युद्ध (civil war) को भी शिया-सुन्नी के रंग में रंगा जा रहा है।
शिया-सुन्नी गुटबाजी को वे ताकतें जरूरत से ज्यादा हवा दे रही है जो मुस्लिम दुनिया के अन्दर और बाहर हैं और जिन्हे इससे सियासती फायदें हासिल करने है। 2003 मे इराक पर अमरीकी क़ब्ज़े से पहले शिया-सुन्नी में कभी कोई परेशानी नहीं थी। अब इस क़ब्ज़े के नतीजे में अफसोस के साथ कुछ शिया और सुन्नियों ने एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने का ज़िम्मा अपने सर ले लिया है। वजह साफ तौर पर शिया-सुन्नी गुटबाजी नही बल्कि इराक़ में पश्चिम के जरिये बिठाई वह पिठ्ठू सरकार है जो नस्ल और फिर्के के बिना पर बनी है। हर गुट की अपने लडाकू सेना है जो अब अपने निजी सियासती मफादो के लए लड़ रहे हैं न कि शिया या सुन्नी मफादों के लिए।
लेबनान में हिज़बुल्ला की फतह को एक शिया फतह के तौर पर नहीं देखा गया बल्कि एक इस्लामिक फतह के तौ पर जिसे दुनिया भर के शिया और सुन्नियों का समर्थन हासिल था। जब कभी कोई लीडर शिया-सुन्नी का ‘पत्ता’ खेलता है, तो वह सिर्फ उसके जाती मफाद के लिये करता है। इसका इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है। मुस्लिम देश जैसे सउदी अरब के द्वारा उम्मत मे मसलक की आग भडकाने सिर्फ एक और मिसाल है इन देशो के हुक्मरानों की उम्मत के साथ धोखेबाजी की और उनके अपने लोगों और इस्लाम के मफाद को पूरी तरह से नजरअंदाज करने की.
इसलिये हमे इस बात पर हैरत नहीं होनी चाहिये उन दावों को सुन कर की सउदी अरब इराक़ से अमरीकी फौजियों के जाने के बाद शियाओं के खिलाफ सुन्नी मिलीशिया (छापामार लडाकू फौज) तैयार करेगा.
अल अहनाफ बिन क़ैस रिवायत करते है: जबकि मैं इस आदमी (अली इब्ने अबी तालिब) की मदद को जा रहा था, मुझे अबू बक्र मिले और पूछा, ‘‘तुम कहाँ जा रहे हो ?’’ मैने जवाब दिया, ‘‘मै उस आदमी की मदद को जा रहा हूँ।’’ वह बोले, ‘‘वापस जाओ क्योंकि मैंने अल्लाह के रसूल से सुना की, “जब दो मुस्लिम तलवारों के साथ मिलते (लडते) है, तो दोनों, मरने और मारने वाला, जहन्नुम मे जायेंगे”. मैने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल  ! क़त्ल करने वाला के लिये तो सहीह है लेकिन जिस का क़त्ल किया गया उसका क्या?” अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने जवाब दिया, “उसका भी उसके साथी को क़त्ल करने की नियत थी”.

मुस्लिम अलग-अलग मुल्कों में रहना पंसद करते है
मुबाशर अकबर कहता है, ‘‘सारे अरब मुत्तहिद है आम जुबान, सकाफत और अकीदे से और फिर भी वे 22 अलग-अलग मुल्कों में रहना पंसद करते है। वे किसी एक अरब खलीफा की इताअत नहीं करना चाहते ।’’
जॉर्डन की यूनिवर्सिटी के कूटनितिक अध्ययन केन्द्र के जरिए किया सर्वे श्रीमान् अकबर के इस खोखले व बेबुनियाद दावे को रद्द करता है। सर्वे के अनुसार अरब लोगों से तीन सवाल पूछे गये – (1) क्या शरीअत ही कानून बनाने का अकेला स्त्रोत (मनबा या ज़रिया) होना चाहिये? (2) या शरीअत भी कानून बनाने के लिए एक और स्त्रोत होना चाहियें ? (3) या शरीअत कानून का स्त्रोत होना ही नहीं चाहियें ? अधिकत मुसलमानों ने माना कि शरीअत को कानून का एक मनबा तो होना चाहिये। जॉर्डन, फिलीस्तीन और मिस्र के दो-तिहाई लोगो ने बड़ी मजबूती से कहा कि शरीअत कानून का वाहिद ज़रिया होना चाहिये। जबकि एक-तिहाई ने कहा कि ये कानून के ‘ज़रियों मे से एक ज़रिआ’ होना चाहियें। किसी ने भी शरीअत के स्त्रोत होने से इंकर नही किया।
न्यू यार्क टाइम्स में छपी पिछले साल की गेलोप पोल में मुस्लिम औरतों की इच्छाए और चिंताए खास तौर पर जाहिर हुई जो । उनकी अहम चिंताए थी: मुस्लिम देशों में इत्तेहाद की कमी, हिंसात्मक तशुद्दतपसन्दी और सियासती तथा आर्थिक भ्रष्टाचार. इन सारी चिंताओं जो सिर्फ आने वाली खिलाफत दूर करेगी।
ये आम मुस्लिम नहीं जो 22 अलग मुल्कों में रहना पंसद करते है। बल्कि यह तो अपना स्वार्थ चाहने वाले काबिले नफरत हुक्मरानो की मंशा है । मुस्लिम दुनिया के हुक्मरान दुनिया में हुए अब तक के सबसे बदतरीन हुक्मरानो में से है। साथ ही ये हुक्मरान दुनिया के सबसे अमीर लोगो में से है, जो उम्मत की गाढ़ी कमाई पर मालदार बने है। उनसे छुटकारा पाना उम्मत के लिए सबसे बड़ा तोहफा होगा। बदक़िस्मती से इन हुक्मरानो के कुछ बड़े दोस्त है जो लंदन और वाशिंगटन जैसी जगहों पर उचे मंसब पर काबिज़ है और ये हुक्मरान अपने इन्हीं आकाओं की मंशा से उम्मत को सख्ती से दबाकर रखते है।
इसके बावजूद ये हुक्मरान डर के मारे आज इधर-उधर दौड़ रहे हैं। आब लोग उनके ज़रिये दी जाने वाली सख्ततरीन पिडाओं से नही डरते और न ही जेल जाने या खुलकर उनके सामने बोलने से। इसका मुज़ाहिरा उन आंदोलनों और प्रदर्शनों में देखा जा सकता है जिसकी लपटे कई मुस्लिम देशो से उठी है। आज अरब लहर कही जाने वाली क्रांति को पूरे 2 साल हो चुके हैं लेकिन वोह अभी भी रुकने का नाम नहीं ले रही है इसके बावजूद भी की उसका रुख मोडने के लिये सारे पश्चिमी पूंजीवादी ताक़ते एक हो गई हैं. अगर कही वोह आरज़ी तौर पर उसका रुख मोडने और मुसलमानों को फिर झांसा देने मे कुछ कामयाब भी हुई है जैसे की मिस्र मे हुआ, तब भी उम्मत को जैसे ही यह अहसास हुआ की उनकी चुनिन्दा हुकूमत सीधे तौर पर इस्लाम को नाफिज़ नहीं करना चाहती है तो उन्होने अपना समर्थन फिर वापस लेना शुरू कर दिया.
अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने फरमाया:- ‘‘सबसे अफजलतरीन जिहाद एक ज़ालिम हुक्मरान के सामने हक़ बात का बोल देना है।’’ (अबू दाउद व तिर्मिज़ि)

अमेरीका यह होने नहीं देगा
अमेरिकी राष्ट्रपति जोर्ज बुश ने अपने ग्लोबल वार ऑन टेरर के भाशण में कहा, ‘‘वे पूरे मध्य पूर्व में एक ताकतवर सियासती आदर्श काल्पनिक राज्य (utopia) के की स्थापना की उम्मीद रखते है, जिसे वे ‘‘खिलाफत’’ कहते है - जहॉ उनकी नफरत भरा मबदा (ideology) के हिसाब से सब पर व्यवस्था चलाइ जाएगी....... मैं इसे नहीं होने दुंगा . . . . . और न ही कोई आने वाला अमेरिकी राष्टपति।’’

ऐसे तकब्बुर भरे दावे आज की मुस्लिम दुनिया की सियासी हक़िक़त में कोई हैसियत नही रखते। इराकी जंग ने उनकी जंगी ताकत की पोल खोल दी है, उनके उन दावों के बावजूद जो उन्हौने इराकी आक्रमण के बाद किये कि वियतनाम के भूत-प्रेतों को अब उन्हौंने क़ाबू मे कर लिया है. इराक उनके लिए दूसरा वियतनाम साबित हुआ है। हर महीने लगभग 100 अमेरिकी सैनिक मरते रहे है और भारी मुखालफत के चलते उन्हें अधिकतर इराक़ी इलाके छोड़ने पड़ रहे है। आज भी वह ब्रिटेन, फ्रांस व दूसे नाटो देशो को मनाने में लगा है। अफगानिस्तान पर कब्जा भी कुछ बेहतर साबित होता नही दिख रहा क्योंकि अमेरीका अपने कब्जे वाले इलाकों को भी नही बचा पा रहा है।
अमेरिकी सियासतदान जिन्हे बुश से कही ज्यादा मौजूदा हालात की समझ है वे अमेरिकी ताकत की हदों से वाकिफ है। उन्हें इस बात का साफ अंदाजा है कि अब अमेरीका इसे अकेला झेल ही नहीं सकता। पेट बचानन (Pat Buchanan) जो अमेरिकी कनज़र्वेटिव मेगजीन के सह-संस्थापक है और पिछले तीन अमेरिकी राष्ट्रपति; निकसन, फोर्ड और रीगन के सलाहकार रहे, ने कहा, ‘‘अगर इस्लामिक हुक्मरानी ही वोह फिक्र है जो इस्लामिक अकसिरीयत मे जड पकड रही है, तो मैं नहीं समझता कि कैसे दुनिया की बहतरीन फौज भी इसे रोक सकती है?’’
यह इस वजह से है कि मुस्लिम बिल आखिर यह यकिन रखते है कि फतह (नुसरत) अल्लाह के जानिब से होती है न कि अकसिरीयत होने या माद्दी वसाइल के पास होने से। कलील तादाद होने पर भी मुस्लिम अपने से कहीं बड़ी अज़ीम ताकत पर काबू पा सकते है अगरचे वे अल्लाह की रस्सी को मजबूती से थामें रहें औ अल्लाह (सुब्हानहु व तआला) की शरीअत से बधे रहें। पिछले साल मुठ्ठी भर लेबनानी लोगों के हाथों इजाईल जैसे “ताकतवर” कहे जाने वाले मुल्क की शर्मनाक हार इसकी साफ मिसाल है। 

अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने फरमाया:- ‘‘जल्द ही तुम देखोगे कि लोग तुम पर हमले के लिये एक दूसरे को इस तरहे बुलायेंगे जैसे लोग एक-दूसरे को दस्तरख्वान पर खाने की दावत देते है।’’ किसी ने पूछा,‘‘क्या उस वक्त हमारी तादाद कम होगी?’’ आप صلى الله عليه وسلم ने जवाब दिया, ‘‘नही’’ उस वक्त तुम कसीर तादाद में होंगे, लेकिन तुम्हारी हैसियत उस झाग और तिनकों के मुआफिक होगी जिन्हे पानी की तेज धारा बहा ले जाती है और अल्लाह तुम्हारे दुश्मनों के सीनों से तुम्हारा खौफ निकाल लेगा और तुम्हारे दिलों में वहन डाल देगा।’’ किसी ने सवाल किया, ‘‘वहन क्या है ?’’ अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने जवाब दिया, ‘‘दुनिया से मोहब्बत और मौत से नफरत।’’ [अबू दाउद]

ठीक 60 साल पहले पूरा यूरोप खुद अपने ही खिलाफ जंग मे शरीक था। अब वे यूरोपीय यूनियन के तहत मुत्तहितद है जिसकी एक मुद्रा (currency) है - यह ऐसा बात है जिसका कुछ दशकों पहले कल्पना भी नही की जा सकती थी। अगर यूरोपीय यूनियन बावजूद जबरदस्त कौमियत परस्ती, अलग-अलग जबानों और जुदा रीति-रिवाजों के एक हो सकता है तो हम क्यों नही ? जबकि हमारा अल्लाह एक, रसूल एक, काबा एक, कलिमा एक और किताब भी एक है।
क्या हक़ीक़तन मुस्लिम दुनिया के तानाशाहों के लिए यह हैरानी या ख्याली बात है कि वे खिलाफत के जरिये हटा दिये जायेंगे जबकि आज खिलाफत का कयाम मुस्लिम अकसिरीयत की मंशा बन चुका है। इन तानाशाहों में से कोइ भी उनके लोगों द्वारा चुना नहीं गया है, सिवाए एक-दो के जिन्होने “भारी मतों से जीत” हासिल की थी । इनमें से कईयों ने तख्तापलट के जरिये मुल्क की कमान हासिल की जैसे कि पाकिस्तान के जनरल परवेज मुशर्रफ। इससे कोई फर्क नही पड़ता कि ये सरकारें पूरी ताकत से इस्लामी सियासी आंदोलन और उम्मत की संस्कृती को कुचलने पर अमादा हो, ये एक फिक्र को न कैद कर सकते है और न ही रोक या दबा सकते है। उम्मत में खिलाफत और शरीअत इस्लाम की हुक्मरानी की फिक्र अब और ज्यादा गहरी होती जा रही है और इसमे आम मुस्लिम और उम्मत के अहले कुव्वत भी शामिल हैं। यह फिक्र (विचार) धीरे-धीरे सेनाओं के बड़े अफसरों में भी बढ़ती जा रही है और अब बस यह कुछ वक्त की बात है कि मुस्लिम दुनिया की फौजो के एक या ज्यादा फौजी अफसर यह तय कर लेंगे कि बस बहुत हो चुका और सही कदम उठाते हुए - मौजूदा सियासती व्यवस्था को हटा कर उसकी जगह हिदायत याफता खलीफा को लाएंगे जो कुरआन और सुन्नत को नाफिस करेगा।
जो लोग अहले कुव्वत है और वे जो मुस्लिम दुनिया की फौजों मे है, उन्हे ये याद रखना चाहिये कि अगर वे खिलाफत के क़याम के ज़रिये इस्लामी हुक्मरानी की वापसी की मे मदद करेंगे, तो उन्हे उम्मत का साथ मिलेगा जो उनका हर तरह से साथ देने को तैयार है।
अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने फरमाया:- ‘‘तुम में उस वक्त तक नबूवत रहेगी जब तक अल्लाह चाहेगा, फिर अल्लाह जब चाहेगा उसे उठा लेगा। फिर ऐन नबूवत की तर्ज पर खिलाफत होगी तो वह रहेगी जब तक अल्लाह की मर्ज़ी होगी, फिर वह जब चाहेगा उसे उठा लेगा। फिर काट खाने वाली बादशाहत होगी तो वह रहेगी जब तक अल्लाह चाहेगा, फिर वह जब चाहेगा उसे उठा लेगा। फिर जबरी और इस्तबदादी हुकूमत होगी तो वह रहेगी जब तक अल्लाह की मर्ज़ी होगी, फिर वह जब चाहेगा उसे उठा लेना। फिर ऐन नबूवत ही की तर्ज पर खिलाफत कायम होगी।’’ फिर आप صلى الله عليه وسلم खामोश हो गये। [अहमद]



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इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.