इस्लामी फ़ुतूहात का मक़सद इस्लाम की तब्लीग़ (प्रसार) है

इस्लामी फ़ुतूहात का मक़सद इस्लाम की तब्लीग़ (प्रसार) है


(Conquest of Islamic Lands is to spread Islam)


जब तक उम्मते मुस्लिमा इस बात की मुकल्लफ़ थी के इस्लाम की दावत को तमाम लोगों तक पहुंचाया जाये, तो मुसलमानों पर इस मक़्सद के हुसूल के लिये यह लाज़िम था के वोह सारे आलम से राब्ते में रहें। इसी तरह रियासत पर यह लाज़िम था के वोह रास्ते इस्तवार करे और दावत को नश्र करे और वोह इक़्दामात करे जो इस्लाम ने इस मक़्सद के लिये मुक़र्रर किये हैं। लिहाजा़ यह तय शुदा और हतमी हुआ के इस्लामी हुकूमत मुमालिक को फ़तह करे। उन फु़तूहात का मक़्सद इसके सिवा और कुछ नहीं के मुसलमानों पर जो वाजिब है उसका निफ़ाज़ हो, यानी लोगों मे इस्लाम की तब्लीग़ इस तरह की जाये के उनपर दीन पूरी तरह वाजे़ह और सरीह हो जाये, ब अल्फ़ाजे दीगर उन पर अहकामे इस्लाम का निफ़ाज़ करना और उनमें इस्लाम के अफ़्कार ओ एैहसासात को नश्र करना। इन मुमालिक को फ़तह करने का मक़्सद उन्हें अपनी नौ आबादियात बना लेना, उन्का इस्तेहसाल करना या वहाँ के कु़दरती वसाइल ओ ज़ख़ाइर पर क़ब्जा करना नहीं होता, बल्के दावते इस्लाम को उन तक पहुंचाना मक़्सूद होता है, ताके उन्हें उन्की मुिश्कलात और फ़ासिद निज़ाम से छुटकारा मिले। यह हक़ीक़त रियासते इस्लाम के क़ायम होने, फ़ुतूहात के अ़मल और जिहाद की फ़र्जी़यत से जा़हिर है।
इस्लामी का रियासत निहायत क़वी और मुस्तहकम असास पर क़ायम थी, उस में वुसअ़त और तरक़्की़ हुई, फैलाव और फ़ुतूहात हुईं, येह एक आलमी रियासत बनने की जानिब गामज़न रही न के एक महदूद ओ मुक़ामी रियासत की तरह सिमटी हुई रही, क्योंके इस रियासत का अ़क़ीदा एक आलमगीर अ़क़ीदा था जो के तमाम इन्सानों के लिये है। इसका निज़ाम आलमगीर नौईयत का है जो तमाम इन्सानियत के लिये है, लिहाज़ा इस का आलमी रियासत होना और फ़ुतूहात का जारी रहना फितरी अम्र था। इस रियासत के वुजूद के लिये एैसा होना हतमी और नागुज़ीर है। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) पर अ़क़्बा के मुक़ाम पर मुसलमान बैअ़त करते हैं, यह बैअ़त ख़ुद आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ किसी से भी लड़ मरने की बैअ़त है, ख़्वाह उस में उनके माल ओ दौलत तबाह हो जाये या उन्के शुरफा़ हलाक हो जायें। उन्होंने बैअ़त की के वोह अपनी ख़़ुशहाली में अपनी तंगदस्ती में सुनेंगे और इताअ़त करेंगे, हर वक़्त सिर्फ़ हक़ की हिमायत करेंगे और अल्लाह के रासते में किसी से ज़र्रा बराबर खौ़फ़ज़दा नहीं होंगे, उन्होंने बैअ़त की के वोह अपनी मौत तक इस्लामी दावत की हिमायत में मुकम्मल इताअ़त ओ फ़रमांबरदारी से लड़ते रहेंगे, और इसके ए़वज़ उनसे सिर्फ़ और सिर्फ़ जन्नत का वादा था। येह इस्लामी लशकर के वोह साबिकू़न अल अव्वलून थे जिन्हो ने इस्लाम के पैग़ाम को नश्र करने के सिवा और कुछ भी नहीं था, यही वोह मक़्सद और मिशन था जिस की ख़ातिर यह लशकर बना, उन्होंने बैअ़त दी और अपनी मौत तक अल्लाह की राह में लड़ने को तैयार हुये। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم)ने ख़ुद अपनी वफ़ात से क़ब्ल उन फ़ुतूहात का मंसूबा तय्यार कर लिया था। आप (صلى الله عليه وسلم) ने जज़ीरा नुमा-ए-अ़रब पर मुहीत इस्लामी रियासत के क़ायम होने के बाद हिज़रत के सातवीं साल रूम के क़ैसर, फ़ारिस के किसरा और दीगर बादशाहों को ख़ुतूत लिखे जिन में उन्हें इस्लाम की दावत दी, मुअता और तबूक में मअऱ्का आराइयां कीं और हज़रत उसामा रज़ि0 का लशकर तय्यार किया। आप (صلى الله عليه وسلم) के बाद ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन ने इस सिलसिले को जारी रखा और शुरूआत उन मुमालिक की फ़तह से की जिनको अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم)ने मुख़ातिब फ़रमाया था, इसके बाद भी यैह सिल्सिला उसी तरह जारी रहा। इन फुतूहात में से किसी मुल्क के कु़दरती वसाइल, माल ओ दौलत और उसको फ़तह करने में आसानी या मुश्किलात पैशे नज़र नहीं होतीः मसलन मिस्र कु़दरती वसाइल के एैतेबार से ख़ुशहाल था और उसे फ़तह करना निस्बतन आसान, उसके बरअ़क्स अफ़रीक़ा का शिमाली इलाक़ा इन कु़दरती वसाइल के लिहाज़ से ख़ाली था, उसके सेहरा के सबब उसका फ़तह करना दुशवार था और वहाँ इस्लाम की दावत लोगों तक पहुंचाना बहुत मुशकिल, लेकिन मिस्र और शिमाली अफ़रीक़ा के दरमियान इस क़िस्म के फ़र्क़ लशकरे इस्लामी के मद्दे नज़र नहीं रहे। इस लशकर के सामने तो बस एक ही मक़्सद था के इस्लाम की दावत तमाम लोगों तक पहुंचाई जाये, वोह चाहे फ़क़ीर हों या असहाबे सरवत, उनका फ़तह करना आसान हो या वहाँ के लोग मज़ाहिमत करें, क्योंके दावते इस्लाम इस बात से मुतअस्सिर नहीं होती के किसी जगह लोग फ़क़ीर हैं या ग़नी, वोह लोग उसे क़ुबूल करते हैं या रदद, यहाँ तो बस एक ही चीज़ क़ाबिले लिहाज़ है के दावत पहुंचाई जाये, उसे एक फ़िक्री क़ियादत का मुक़ाम हासिल हो जिससे एक निज़ामे जिन्दगी माख़ूज़ हो और यह तमाम आलम में तमाम लोगें तक पहंुचाई जाये।
कुऱ्आन करीम में अल्लाह सुबहानहू व तआ़ला ने क़िताल के असबाब और जिहाद की फ़र्जी़यत बयान फ़रमाई है और येह वाजेह कर दिया के जिहाद सिर्फ़ इस्लाम की राह में उसकी दावत पहुंचाने के लिये ही किया जाना है। मुतअदद आयात वारिद हुई हैं जिन में जिहाद को सिर्फ़ इस्लाम के लिये बताया हैः

وَ قَاتِلُوْهُمْ حَتّٰى لَا تَڪُوْنَ فِتْنَةٌ وَّ یَڪُوْنَ الدِّيْنُ  كُلُّهٗ لِلّٰهِ١ۚ

और तुम उनसे इस हद तक लड़ो के उनमें फ़साद अ़क़ीदा न रहे और दीन अल्लाह ही का हो जाये। (तर्जुमा मआनी कुऱ्आन करीमः सूरह अनफ़ालःआयतः39)

और सूरह बक़राः में फ़रमायाः

وَ قٰتِلُوْهُمْ حَتّٰى لَا تَڪُوْنَ فِتْنَةٌ وَّ یَڪُوْنَ الدِّيْنُ لِلّٰهِ١ؕ فَاِنِ انْتَهَوْا فَلَا عُدْوَانَ اِلَّا عَلَى الظّٰلِمِيْنَ۰۰۱۹۳

उनसे लड़ो जब तक के फ़ितना न मिट जाये और अल्लाह का दीन ग़ालिब न आ जाये, अगर येह रुक जायें  (तो तुम भी रुक जाओ) ज़्यादती तो सिर्फ़़ ज़ालिमों पर ही है। (तर्जुमा मआनी कुऱ्आन करीमः सूरहः अल बक़रा, 193)


قَاتِلُوا الَّذِيۡنَ لَا يُؤۡمِنُوۡنَ بِاللّٰهِ وَلَا بِالۡيَوۡمِ الۡاٰخِرِ وَلَا يُحَرِّمُوۡنَ مَا حَرَّمَ اللّٰهُ وَ رَسُوۡلُهٗ وَلَا يَدِيۡنُوۡنَ دِيۡنَ الۡحَـقِّ مِنَ الَّذِيۡنَ اُوۡتُوا الۡـڪِتٰبَ حَتّٰى يُعۡطُوا الۡجِزۡيَةَ عَنۡ يَّدٍ وَّهُمۡ صٰغِرُوۡنَ‏ ﴿۲۹﴾

उन लोगों से लड़ो जो अल्लाह पर और क़यामत के दिन पर ईमान नहीं लाते जो अल्लाह और उसके रसूल की हराम करदा शै को हराम नहीं जानते, न दीने हक़ को कु़बूल करते हैं उन लोगों में से जिन्हें किताब दी गई है, यहाँ तक के वोह ज़लील ओख़्वार हो कर अपने हाथ से जिज़्या अदा करें, (तर्जुमा कुऱ्आन करीमःसूरह तौबाः आयतः193)
यही वोह आयात हैं जिन में जिहाद का हुक्म आया है और मुसलमानों के लिये इसका मक़्सद मुतअैय्यन कर दिया है।
इस्लाम की दावत ही दरहक़ीक़त वोह मक़्सद और ग़ायत है जिस के लिये रियासते इस्लामी क़ायम हुई, फ़ौज तैयार की गई और जिहाद फ़र्ज़ किया गया। यही दावत तमाम फ़ुतूहात की सबब थी और इसी दावते इस्लाम के ज़रिये ही मुसलमान अपनी रियासत दोबारा बना सकेंगे।
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