क़यामे खिलाफत की कोशिश एक फर्जे़ ऐन है जो फौरी तवज्‍जो चाहता है

क़यामे खिलाफत की कोशिश एक फर्जे़ ऐन है जो फौरी तवज्‍जो चाहता है

अल्‍लाह سبحانه وتعالى के नाजिल करदा अहकामात के मुताबिक हुकूमत करने वाली रियासत के क़याम के लिए काम करना बुनियादी तौर पर फर्जे़ किफाया है. अगर ये फर्ज़ कुछ लोगों की कोशिश और जद्देाजहद से पूरा नही होता है तो इस फर्ज़ को पूरा करने की जिम्‍मेदारी इतनी बड जाती है कि शरिअत की तरफ से फिर यह फर्ज़ हर मुसलमान पर इन्फिरादी तौर पर आयद हो जाता है। यानी यह फर्जे़ ऐन हो जाता है। इसलिए खिलाफत के क़याम के लिए कोशिश करना हर मुसलमान पर फर्जे़ ऐन है।

इस्‍लाम में खिलाफत के क़याम की फर्जियत के लिए दलाईल आए है यह मतनी और माअनी के ऐतबार से इतने वाज़ेह हैं की इसका इनका इन्‍कार कुफ्र है और इनको मानकर इसको अदा करने से बचना गुनाह है। इस सबूत नस में मौजूद वोह दलाईल है जो मुसलमानो का शरिअत की इत्तिबा और जिन्‍दगी में मामलात की निगरानी शरिअत के मुताबिक करने का हुक्‍म देते है। इसकी दलील नस (मतन) के उस हिस्‍से में भी पाई जाती है जो मुसलमानों पर यह हराम क़रार देती है कि वोह इस्‍लामी शरिअत के अलावा किसी और शरिअत से अपनी जिन्‍दगी के मामलात हल करें।
“चोरी करने वाले मर्द और औरत के हाथ काट दिया करो.” (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन, 5:38)
“ज़िनाकार मर्द और औरत मे से हर एक को हर एक को सौ कोडे लगाओ” (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन, 24:2)
अल्‍लाह سبحانه وتعالى का फरमान है:
''जिनका दावा है तो ये है कि जो कुछ आप पर और जो कुछ आपसे पहले उतारा गया है उस पर उनका ईमान है, लेकिन वोह अपने फैसले गैरूल्‍लाह की तरफ ले जाना चाहते है हांलाकि इन्‍हे हुक्‍म दिया गया है कि तागू़त का इन्‍कार करें।'' (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन मजीद, 4:60)
“सो कसम है उस परवरदिगार की। ये मोमिन नही हो सकते जब तक के तमाम आपस के इख्तिलाफ में आपको हाकिम न मान लें। फिर आप जो फैसले आप इनमें कर दे (उस पर) अपने दिल में किसी तरह की तंगी और नाखुशी न पाए और फरमाबरदारी के साथ कबूल कर ले।” (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन, सूरह निसा-65)
इस तरह बहुत से शरई दलाईल हैं, जिन में इस बात को दोहराया गया है, इसलिये इस्‍लामी रियासत न होने की सूरत में इस्‍लामी अहकामात का एक बहुत बडा़ हिस्‍सा मुअत्‍तल (अधूरा) रहता है और इसकी जिम्‍मेदारी उम्‍मत पर है।

जहॉ तक इस हकीक़त का ताल्‍लुक है के इस फर्ज़ को अन्‍जाम देने के लिए मुस्लिम उम्‍मत के हर फर्द को अपनी पूरी सलाहियत और इस्तिताअत के मुताबिक काम करना ज़रूरी है तो नस में इसके दलाईल हतमी (definitive) तौर पर मौजूद है और जो अपने मआनी के ऐतबार से क़तई है इसलिये जो कोई भी इसका इन्‍कार करे वोह काफिर है। यह दलील नस (कुरआन और सुन्‍नत) से ली गई है जो इस मआनी की तस्‍दीक़ और मुस्तहकम करता है। अल्‍लाह (سبحانه وتعالى) का इरशाद है कि
''डरो अल्‍लाह से जितना तुम डर सको’’ (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन 27:93)
दूसरी जगह इरशाद है:
''अल्‍लाह किसी नफ्स पर उसकी ताकत से ज्‍यादा वज़न नही डालता’’ (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन  2 - 86)
इससे मुराद ये है कि मुसलमान को अपनी पूरी सलाहियत और क़ुव्‍वत के साथ फर्ज़ की अदायगी करना चाहिए न के आधी अधूरी कोशिश या कम से कम कोशिश. जब अल्‍लाह तआला ये फरमाता है कि डरो ज़ जितना तुम डर सको तो इसका मतलब हुआ के आदमी को पूरे और मुकम्‍मल तौर पर डरना चाहिए न कि आधा अधूरा या सिफ्र ज़बानी डर।

जब मुसलमान अपने आस-पास मुन्किरात को होते हुए देखता है तो उसको हुक्‍म दिया जाता है कि वह मुन्किरात को रोके और बदल दे अपनी पूरी इस्तिताअत के साथ न कि अपनी इस्तिताअत के कुछ हिस्‍से से क्‍योंकि अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया : ''जो भी तुममे से मुन्‍कर देखे तो ज़रूरी है कि वह उसे अपने हाथ से बदल दे, और अगर इसकी ताक़त न हो तो ज़बान से बुरा कहे और इसकी भी ताक़त न हो तो दिल से बुरा जाने और ये कमज़ोर तरीन ईमान है।'' (मुस्लिम)

यहॉ अगर इसकी ताक़त न हो तो माअनी है कि उन्‍होंने पूरी कोशिश की मगर यह मुन्‍कर (बुराई) न बदल सकें। कुछ लोग खिलाफत के क़याम की कोशिश और खिलाफत की फौरी तौर पर क़ायम करने के फर्क को नही समझ पाते है। इनका ये मानना है कि ''हम मौजूदा निज़ामे हुकूमत को बदल कर उसकी जगह खिलाफत का निज़ाम क़ायम नही कर सकते, इसलिए इसके क़याम की कोशिश करना फर्ज़ नही है क्‍योंकि अल्‍लाह तआला किसी बंदे पर उसकी ताक़त से ज्‍़यादा ज़ोर नही डालता है।'' इस तरह के ऐतराज़ात की वजह अहकामात और हकीक़त को न जानने की वजह से पैदा होती है। इस तरह की ग़लतफहमी को दूर करने के लिये हम कहते है कि जो ग्रुप खिलाफत के क़याम को फौरन हासिल कर सकता है तो उसे इस मुआमले में ताखीर करने की इजाज़त नही। अगर उसे इस मकसद में फौरन कामयाबी नही मिलती तो उसे अपनी कोशिश में तेजी लाकर दुगनी मेहनत करनी चाहिए और अपने आपको ताक़तवर बनाना चाहिऐ ताकि वोह बाद में भी इस फर्ज़ को अन्‍जाम दे सकें। इसलिये जो कोई भी इस मक़सद को फौरन हांसिल नहीं कर सकता तो वोह अपना पूरा ज़ोर लगाकर इसे हांसिल करे जब भी वह कर सकता है।
मजीद ये के हम ये क्‍यों कहते है कि “हम नही कर सकतें”? खिलाफत के क़याम की कोशिश का मुतालबा एक फर्द (व्‍यक्ति) से नही है और न ही यह मुतालबा किसी एक ग्रुप या जमात से या एक मुल्‍क से है। इसका मुतालबा शरीअत की तरफ पूरी उम्‍मत से हैं चाहे वोह अरब हो या गैर-अरब और इस वक्‍त यह हर मुसलमान पर फर्जे़ ऐन है। सवाल ये है कि आज उम्‍मत इस फर्ज़ को पूरा करने की अहल है या नही या सरकारी मुनाफिक ओलमा या मग़रिबी अफ्कार (पश्चिमी विचारों) के असर में आकर वोह गुनहगार सुस्‍त और लापरवाह हो गये है।

खिलाफत के क़याम की कोशिश तमाम मुसलमानों पर फर्जे़ ऐन है और उसको पूरा करने में तमाम तर कोशिश करना सिर्फ वक्‍त का तकाज़ा है। इसके ये माअनी हरगिज़ नहीं है कि हमे दूसरे फराईज़ और मन्‍दूबात को नजरअन्‍दाज़ या इनसे दस्‍तबरदार होना होगा। एक मुसलमान के लिए अपने अहले खाने की किफालत के लिए काम करना और खिलाफत के क़याम की कोशिश करना दोनो फर्जे़ ऐन है तो इन दोनो फराईज़ में से किस फर्ज़ का मुकद्दम और किसको मोख्खिर करना होगा। शरीअत ने लाज़िम किया है कि मुसलमान तमाम अहकामात की पाबन्‍दी करें। अगर ऐसी सूरत बनती है जहॉ पर किसी फर्ज़ को मुकद्दम और मोख्खिर करने का मामला हो तो वहॉ भी ये करने का इख्तियार शरीयत को होगा न कि अपने हवाए नफ्स से फैसला लिया जाएगा। ओलमाए इस्‍लाम, मुजतहिद और अहले इल्‍म से इन मुआमलात में रूजू किया जा सकता है। अगर कही ये सूरत बन जाए कि अहले खाना की ज़रूरतो को पूरा किया जाए कि खिलाफत के लिए काम किया जाए तो ऐसी सूरत में किस फर्ज़ को मुकद्दम और किसको मोख्खिर करना होगा। इस सिलसिले में ये बात वाज़ेह है कि मुसलमान को अपने अहले खाना की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काम करना दरजाए अव्‍वल की हैसियत रखता है। लेकिन यहॉ ये बात वाज़ेह रहे कि मुसलमान को अपने अहले खाना की ज़रूरतों के लिए कोशिश में इनकी बुनियादी ज़रूरते शामिल होती है, लेकिन इनकी आसाईश (luxuries) और दीगर लवाजमात की खातिर काम के लिए खिलाफत के क़याम की कोशिश को मोख्खिर (delay) नही किया जा सकता है।

बहुत से मामलों में खिलाफत के लिए काम करना काम (कारोबार या नौकरी) में हाईल नही होता है क्‍योंकि काम के दौरान भी लोगो के दरमियानप रब्‍त रहता है। इनसे मुलाकात और गुफ्तगू भी होती जो दावती काम के लिए मुफीद होती है। और आज हम जब यह कहते है कि आज ईस्‍लामी रियासत के क़याम (स्‍थापना) के लिये काम करना अपनी पूरी कु़व्‍वत के साथ, हर फर्द (व्‍यक्ति) पर फर्जे़ ऐन है, इसका मतलब यह है कि उसे ऐसे कई मुबाह (जाईज़) आमाल और मन्‍दूब आमाल को तर्क करना होगा जो इस फर्ज़ की अदाइगी में रूकावट बनते है। एक मुस्लिम अपने महकूमों (परिवार) की मदद करने के लिये ज़रूरी रोज़ी हासिल करना चाहिए। यह भी उस पर फर्जे़ ऐन है। हांलाकि आज उसको खिलाफत के क़याम के लिये लोगों को दावत देना भी फर्जे़ ऐन है तो इन दोनो फराईज़ में से कौनसा फर्ज़ तरजीह लेगा? शरीअत भी एक मुस्लिम से सारे फराईज़ को पूरा करने का मुतालबा करती है। हांलाकि ऐसे हालत में जब कई फराईज़ एक साथ इकट्ठे हो जाते है, यानी अगर वोह एक को पूरा करता है तो दूसरा छूट सकता है, ऐसे मामले में भी सिर्फ शरीअत ही यह तय करती है कि किस मामले को तरजीह देनी चाहिए और किस फर्ज़ को बाद अदा किया जा सकता है। यानी यह मसला खुद भी शरीअत से ताल्‍लुक रखता है न की अपनी ख्‍वाहिशात और पसन्‍द-नापसन्‍दी से। तरजीहात को समझने और तय करने के मामले में अहले ईल्‍म व इज्तिहाद पूरी सलाहियत रखते है। इस हालत में रिज्‍़क हासिल करना खिलाफत के क़याम के लिये काम करने से तरजीह हासिल करता है, लेकिन यह गुन्‍जाईश बुनियादी ज़रूरीयात को हासिल करने के लिये है न की ऐशोअराईश (luxuries)। चुनांचे अगर कोई मुस्लिम इतनी कमाई करता है कि उसकी बुनियादी ज़रूरीयात पूरी हो जाये, उसके बाद उसे इस बात की ईजाज़त नही वो ऐशोअराईश हांसिल करने के लिये के कोई दूसरा काम करे ''अगर'' यह काम उसे खिलाफत के क़याम के लिये काम करने के फरीज़े से रोकता है। ज्‍़यादातर काम-धंधा लोगों को दावत के काम से नही रोकता है जब तक वोह लोगों के दर्मियान काम करता है, यानी वोह काम के दौरान भी दावत के फरीजे को अंजाम दे सकता है।
यह एक ग़ैर-शरई उज़्र (excuse/सबब) ही कि कोई मुस्लिम यह कहे कि : मै खिलाफत के क़याम के लिये इसलिये काम नही कर सकता क्‍योंकि इससे मुझे काम से निकाला जा सकता है या मुझे जेल में डाला जा सकता है। ऐसा इसलिये की एक मुस्लिम को ऐसा काम (कारोबार) नही करना चाहिऐ जो उसे गुनाह में डाल दे। जिस तरह से एक मुस्लिम के लिये यह हराम है कि वोह नशीली चीज़ो, ब्‍याज, रिश्‍वत और धोखाधडी से रिज्‍़क कमाऐ, उसी तरह उस पर यह हराम है कि वोह काफिरानार निज़ाम की मदद करके रिज्‍़क कमाऐ या काफिराना निज़ाम (व्‍यवस्‍था) के मामले में खामोश रहे।

जहॉ तक खिलाफत के क़याम के लिये बहुत तेज़ी से काम करने का ताल्‍लुक है, तो इसकी दलील भी नस में रिवायत और दलालत के ऐतबार से क़तई है। ऐसा इसलिये की शरई अहकामात, जिन्‍हे अल्‍लाह (سبحانه وتعالى) ने नाजिल फरमाया है, वह उसी वक्‍त काबिले निफाज़ हो जाते है जब उन्‍हे पहुंचा दिया जाता है। जब क़िबले के तब्‍दील होने का हुक्‍म नाजिल हुआ (बैतुल मुकद्दस से काबे की तरफ), तो वोह लोग जो उस वक्‍त नमाज़ पड रहे थे, उन्‍होंने उसी हालत में काबे का रूख कर लिया। चुनांचे उसूली तौर पर हुक्‍म फौरन निफाज़ के लिये होता है जब तक की कोई ऐसी दलील मौजूद न हो जो किसी हुक्‍म के अमल में लाने में कुछ रिआयत देती हो। इसलिये जब अल्‍लाह (سبحانه وتعالى) ने फरमाया :
“ऐ लोगों अल्‍लाह से डरो’’ (4:1)
और जब अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया : ''जो कोई किसी मुन्‍कर को होता देखे, तो उसे बदले”. यह सारे हुक्‍म फौरी तौर पर निफाज़ के लिये है, और इसी तरह वोह हुक्‍म जो हुदूद (penal code) से मुताल्लिक है, और अदालती निज़ाम, और जिहाद के ज़रिये लोगों तक दावत पहुंचाना, सरहदो की हिफाज़त करना और रिआया पर शरिअत का निफाज़ करना। यह सारे अहकाम फौरी तौर पर नाफिज़ होने चाहिए। मज़ीद, मुसलमानों को खलीफा के बिना तीन दिनों से ज्‍़यादा रहने की इजाज़त नही है, जो कि शरीअत नाफिज़ करता है। अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया : ''और जो कोई भी अपनी गर्दन पर बिना बैअत के (तौक़ के) मर गया, वोह जहालत की मौत करा।''
नतीजतन, इस बात की कोई गुन्‍जाईश नही है उसके लिये जो कहे, “मै खिलाफत के क़याम के लिये कोशिश करूंगा, लेकिन जब मेरा ग्रेजूऐशन हो जायेगा’’ या कहे ''जब मौजूदा प्रोजेक्‍ट, जिस पर मै काम कर रहा हॅू, खत्‍म हो जायेगा’’ या इसके जैसी कोई और बात, क्‍योंकि दावत के काम को फौरन अमल में लाना चाहिऐ अगर यह किसी भी तरह से मुमकिन है और इसे नज़रअन्‍दाज करना गुनाह है।

खिलाफत के क़याम के लिये काम करने में सबसे ज्‍़यादा अहमियत इस बात को हासिल है कि इस तसव्‍वुर को मुसलमानों को तफ्सील से बताया जाये और फैलाया जाये और उन्‍हे इस हद तक बताया जाये कि यह उनके दर्मिया एक ईस्‍लामी फर्ज़ और ज़रूरत के मुहावरे की शक्‍ल इख्तियार कर ले।
लोगों को यह दावत देते वक्‍त, एक मुसलामनों का दिल इस्‍लामी जज़बात से लबरेज रहना चाहिए, जो उन्‍हें दावत का काम करने, बर्दाश्‍त करने और कुरबानी देने की तरगीब देता है। अल्‍लाह (سبحانه وتعالى) ने फरमाया :
''ऐ लोगों जो ईमान लाऐ हो, अल्‍लाह और उसके रसूल की पुकार पर लब्‍बेक कहो जबकि वोह तुम्‍हे उस तरफ बुलाते है जो तुम्‍हे जीवन देता है।’’ (तुर्जमा मआनिऐ कुरआन 8-24)         
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