खिलाफत की वापसी के लिये काम कैसे करें

खिलाफत की वापसी के लिये काम कैसे करें


आज यह एक बहुत बड़ी हकीकत बन गई है कि उम्मते मुस्लिमा खिलाफत की वापसी की बहुत आरजू़मन्द है। उसने अब तक ईतना कुछ देख लिया है, जिसने उसकी आरजू़ को मजबूत कर दिया है। आज हम देखते है अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मुसलमानो के दिलो में इस आरजू़ को दोबारा जि़न्दाा कर दिया है कि यह उम्मत दोबारा ईस्लाम की हुक्मरानी की तरफ लौटे। इसमें वोह लोग भी शामिल है जो अपना वक्त और कोशिशो को ईख्लास के साथ ईस्लाम की खिदमत मे लगा देना चाहते है। इस मज़मून में इस बात पर रौशनी डाली गई कि ऐसे लोग किस तरह से ईस्लाम और उसके महान उद्देश्योर को पूरा करने के लिये काम कर सकतें है।

अमल से पहले ईल्म:

إِنَّكُم أَصْبَحْتُم فِي زَمَان كَثِير فُقَهَاؤه قَلِيل خُطَبَاؤه، قَلِيل سَائِلُوه كَثِير مَعطُوه، العَمَل فِيهِ خَيْر مِنَ العِلْم، وَسَيَأتِي عَلَى النَّاس زَمَان قَلِيل فُقَهَاؤه كَثِير خُطَبَاؤه قَلِيل مَعطُوه كَثِير سَائِلُوه، العِلْم فِيهِ خَيْر مِنَ العَمَل

हज्जाम बिन हाकिम अपने चचा से रिवायत करते है, जिन्होने अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) को कहते सुना, ‘‘तुम ऐसे समय मे हो जब कई फुक़हा (ईस्लामी कानूनदान) है, कुछ ही बोलने वाले है, कई देने वाले है और कुछ ही पूछने वाले है, तो ऐसे समय में अमल बहतर है ईल्म से। बहुत जल्द ऐसा वक्त आयेगा कि कुछ ही फुक़हा होगें, बोलने वाले बहुत, पूछने वाले बहुत और देने वाले कुछ ही होंगे, तो इस समय में ईल्म बहतर है अमल से।” 
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) के इस मुबारक मश्व रे से यह उसूल निकलता है कि ईस्लाम ने अमल को ईल्म से पहले रखा है। यह देखकर अफसोस होता है इस्लाम के दाईयों में से कुछ ईल्म से ज़्यादा अमल को अहमियत देते है। यह बहुत खतरनाक है क्योंकि हमने आखरी सदी में देखा के बहुत सारे कौमपरस्त (राष्ट्रवादी) अन्दोलनो की बाढ़ साम्राज्यवादियो (colonialists) के खिलाफ खडी हुए लेकिन उनके जाने के बाद वोह उसी काफिराना लादीनियत (धर्मर्निपेक्षता/secularism) के मॉडल को मुस्लिम ज़मीनो पर लागू किया और आज भी हम पाते है कि कुछ मुस्लिम देशो की सरकारे ईस्लाम के झण्डे तले मुस्लिम दुनिया के इस्लामिकरण के लिये ‘तजुर्बे’ कर रही है। जबकि कुरआन और सुन्नत मे ईस्लामी निजा़म के बारे में तफ्सील से बयान किया, और इसकी तफ्सीलात को ईस्लामी किताबे अच्छी तरह बयान करती है। ईस्लाम ने किसी भी अमल को करने की शर्त, फिक्र (विचार) और इल्म को रखी है। इससे यह यकीन हो जाता है कि जो भी अमल किया जाए वो सहीह हो और यह की अमल ईस्लाम के मुताबिक हो और यह की सही अमल (कार्य) से ही मक़सद हासिल होता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि किस तरह का ईल्म चाहिए? यहां कुछ बिन्दु दिये गये है जो किसी भी ईस्लाम के दाई को समझने की जद्दोजहद करनी चाहिए:

(1)    ईस्लाम और उसके बुनियादी तसव्वुरात की समझ हासिल करना चाहिए। इन तसव्वुरात की शुरूआत अकीदे से होना चाहिए, क्योंकि अकीदा ही सभी सहीह आमाल की बुनियाद होता है। एक मुस्लिम को अपने अकीदे की बुनियाद पर  अक़्लली तौर पर मुतमईन होना चाहिए। जैसे अल्लाह के वजूद, पर हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के सच्चे रसूल होने पर और कुरआन का अल्लाह की किताब होने पर। यह यकीन बुद्धि (अक्ल) पर आधारित होना चाहिए, न सिर्फ दूसरो से सुनने की वजह से या जज़बात की बुनियाद पर। हमने कई बार ईसका मुशाहिदा किया, जिसे देखकर दुख होता है कि कुछ शानदार लोग, जिनमे काफी जोश होता है ईस्लाम के मक़सद के लिये कुछ दिन काम करते है और फिर कुछ दिनो बाद वोह इस काम को छोड़ देते है। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि उनकी बुनियादें कमजो़र हेाती है। उनके पास जो कुछ होता है वोह जोश या ख्वाहिश न की यक़ीनी मालूमात।

(2)    शरिअत के अहकाम को समझने के लिये ईस्लाम ने मुस्लिमों पर यह फर्ज़ करार दिया है कि वोह अपने आमाल (अपनी जिन्दगी के दायरे से मुताल्लिक) के बारे मे हुक्मे शरई को जाने और समझे। यानी एक मुस्लिम को अपने रोजा़ना के आमाल, जिसके ज़रिए वोह अपनी माद्दी जरूरियत पूरी करता है, और अपनी ज़िम्मे दारियॉ पूरी करता है, इन सभी आमाल और ज़िम्मेदारियो के बारे में इसे हुक्म शरई मालूम होना चाहिए ताकि वोह जायज़ और नाजायज़ का फर्क कर सके और अपने आमाल को उसके मुवाफिक ढाल सके। एक मुस्लिम के लिये यह ग़लत है कि वोह लोगो को ईस्लाम की तरफ बुलाऐ जबकि वह खुद अपनी निजी ज़िन्द्गी में उस पर अमल न करे। हमे फिर अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि जो लोग ‘पश्चिसमी तहजीब’ की खुली मुखालिफत (विरोध) करते है फिर भी उनकी जिन्दगी उन्ही फिल्मों, संगीत, टी.वी. सीरीयल और बहुत सारी फिजू़लियात से भरी हुई है जो उन्हे पश्चि्म ने दी है। जब हम शरिअत के अहकाम को समझने की बात करते है तो हमे शरिअत के किसी मखसूस पहलू तक ही महदूद नही रहनी चाहिए, जिसकी तरफ हमारा रूझान हो। बल्कि ईस्लाम को हमे जामेअ (सम्पूर्ण) तौर से समझना चाहिये। इस वाक्य का मतलब यह नही कि हमे पूरी ईस्लामी शरिअत को समझने की जरूरत है बल्कि ईस्लाम को एक मुकम्मल व्यवस्था, जिसमें रियासत, अर्थव्यवस्था, अदालत, समाजी व्यवस्था और ईबादत शामिल है, की हैसियत से समझे। ईस्लाम की तस्वीर को पूरी की पूरी समझने और देखने की कोशिश करे।

(3)    कुफ्र से मुताल्लिक अहम बिन्दुओ को समझें। कई लागों के सामने यह बिन्दु साफ होता है। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) कुरेश के विचारो को अच्छी तरह समझा करते थे ताकि वोह उनके खिलाफ बोल सकें और अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने भी इस अमल की हौंसला अफजा़ई की है। इसलिए कुरआन में अल्लाह (سبحانه وتعالى) कई मौको पर मुश्रिूको में मौजूद तज़ाद (विरोधाभास) की तरफ तवज्जोह दिलाई है। आज मुसलमानों को मौजूदा दुनिया पर हावी विचारधारा (Ideology) यानी पूंजीवाद (सरमायादारियत) और उसके अंगो के बारे में अच्छी तरह से आगाह होना चाहिए क्योंकि आज इसी विचारधारा का मुकाबला ईस्लाम से है। यह वोह काफिराना शरिअत है, जिसकी बुनियाद कुफ्र है, जिसमें हाकिमे आला और कानूनसाज ईन्सान खुद होता है। ईस्लाम का मुकाबला किसी धर्म से नही क्योंकि ईस्लाम के अलावा कोई भी धर्म मबदा (विचारधारा) नही है, जिससे काई व्यवस्था फूटती हो यानी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और अदालती व्यवस्था जिसकी बुनियाद पर लोगो के मसाईल को हल किया जाए। बाकि सारे धर्म महज़ ईबादत और चन्द सामाजिक रस्मो रिवाजो से ज्यादा कुछ नही जिसमे इसाईयत और यहूदियत भी शामिल है। अगर इन धर्मों मे कोई जानदार व्यवस्था पाई जाती तो इसाईयों को 1000 सालों से ज़्यादा काले युग (dark ages) मे नहीं रहना पडता और यहूदियों को कई सौ सालों तक इस्लामी खिलाफत की पनाह नही लेनी पडती. इस वक्त दुनिया में ईस्लाम के अलावा सिर्फ एक ही निजा़में हयात (जीवन व्यवस्था) है, जिसे पूंजीवाद (Capitalism) कहा जाता है। इसे दूसरे नामों से जैसे लोकतंत्र (Democracy), धर्मनिर्पेक्षता (Secularism) वगैराह के नाम से भी जाना जाता है। मालूम यह हुआ कि इसके बारे में ईल्म हासिल करने का मतलब यह है कि यह ईल्म सतही (Superficial) नही होना चाहिए ताकि ईस्लाम की दावत आम बात न बनकर रह जाए, जो लोगो के दिल में न उतर सके। अल्लाह (سبحانه وتعالى) फरमाता है:
قُلْ هَـذِهِ سَبِيلِي أَدْعُو إِلَى اللّهِ عَلَى بَصِيرَةٍ أَنَاْ وَمَنِ اتَّبَعَنِي وَسُبْحَانَ اللّهِ وَمَا أَنَاْ مِنَ الْمُشْرِكِينَ
‘‘कहो ‘यह मेरा रास्ता है: मैं अल्लाह की तरफ इल्मे यकीनी के साथ बुलाता हॅू मै और जो कोई भी मेरी (मुहम्मद صلى الله عليه وسلم) ईताअत करता है। अल्लाह पाक और बड़ी शान वाला है और मै मुश्रिरको में से नहीं हॅू”  (यूसुफ: 108)

अल्लाह (سبحانه وتعالى) हुक्म देता है कि ईल्म मुख्तसर और जामेअ (Comprehensive) होना चाहिए। आज हमें ग्लोबलाईजेशन, लोकतंत्र, स्वतंत्रता (liberalism), धर्मनिर्पेक्षता (Secularism) से आगाह होना चाहिये और इस्लाम से इनके टकराओ को समझना चाहिये।

(4)    सहीह ईस्लामी दावत को समझना: अगर मुस्लिम ईस्लाम को सहीह तौर पर समझें तो वोह पायेगा कि ईस्लाम ने ईक्तिदार (सत्ता या Authority) को सबसे अहम अंग की हैसियत दी है ताकि ईस्लाम के अहकाम और मुसलमानो की हिफाज़त की जा सकें।
इससे यह बात साबित हो जाती है कि ईक्तिदार की गै़र-मौजूदगी मे इसे वापस हासिल करने के लिये काम करने की ज़रूरत है। ईस्लाम ने जिस सियासी ढांचे की बुनियाद डाली है उसे खिलाफत कहते है। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया, ‘‘मैरे बाद कोई नबी नही है, लेकिन खुलफा होंगे और वोह कई होंगे।”  इसलिये इस्लाम के लिये सहीह तौर पर काम करना दरअसल खिलाफत के लिये काम करना और दावत देना है। यानी इसकी वापसी के लिये काम करना है। और इस काम के लिये एक जागरूक ईस्लामी राजनैतिक पार्टी की जरूरत है। बुनियादी तौर से यह एक सियासी (राजनैतिक) काम है। पहले जो कुछ भी जिक्र किया इसके अलावा एक मुस्लिम के लिये जरूरी है कि वोह लगातार ईल्म हासिल करे और हमेशा अपनी समझ को आगे बड़ाने के लिये जद्दो-जहद करता रहे।

दावत पहुंचाना:-अगर मुस्लिम सिर्फ ईल्म हासिल करने में मसरूफ होते है तो वोह यह जल्दी ही महसूस करेंगे कि बिना अमल के ईल्म की मिसाल ऐसी है जैसे गधा अपनी पीठ पर बहुत सारी किताबो का वजन ढोहता है। ऐसा ईल्म लोगों के किसी भी काम का नहीं होता, चाहे कोई उसे कितना ही हासिल कर ले और वोह कितना ही बड़ा फक़ीह बन जाऐ।
इस्लाम मे इस्लाम को पहुंचने और खिलाफत को वापस लाने के लिये सबसे अहम काम उसकी दावत देना है। यानी लोगो को इसकी तरफ बुलाना। अल्लाह (سبحانه وتعالى) फरमाता है,
ادْعُ إِلِى سَبِيلِ رَبِّكَ
‘‘और लोगों को अल्लाह के रास्ते की तरफ बुलाओ ...’’ (सूर: अननहल: 125)
ईस्लाम ने यह लाज़िम करार दिया है कि ईल्म हासिल होते ही दावत पहुंचाने का काम शुरू कर देना चाहिए। ईस्लामी तारीख मे ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई दाई ईस्लाम के विचारो से प्रभावित होकर घर पर बैठा रहा हो। साहाबा (रज़ि0) के वाकियात इसकी बहुत अच्छी मिसाल है और अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया, ‘‘मेरी तरफ से पहुचांओ अगर चे एक आयत ही क्यों न हो”।
दावत देते वक्त आगे दी गई बातो का ध्यान रखना चाहिए:-
(1)    दावत के अमल की जिन्द”गी में मर्कज़ी हैसियत होना चाहिए। मुसलमानो को साफ और ग़ैर-मुबहम (unambiguous) अन्दाज में यह बताया जाऐ कि आज कई मसाईल (समस्याऐ) जो हम देख रहे है वोह खिलाफत की गै़र-मौजूदगी की वजह से है, जिसकी ईस्लाम मांग करता है। और हामिले दावा (दाई) ईस मसले पर अच्छी तरह गुफ्तगू करे। मुसलमानों को ईस्लामी सरज़मीनो पर पश्चिसमी ताकतो को साज़िशो को उजागर करना चाहिए और हमारे रहनुमाओं की शक्ल में उनके ऐजेन्टो को उजागर करना। इसके साथ-साथ उनकी भ्रष्ट विचारधारा (Ideology या मब्दा) जैसे राष्ट्रवाद, पूंजीवाद, (Capitalism) तदर्रूज (gradualism) को उजागर करना, जो मुसलमानो को दोबारा एक मज़बूत कयादत के तहत एक होने से रोक रहा है।
(2)    एक मुस्लिम को उस बारे में नही बात करनी चाहिए जो वोह नही जानता हो। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) हमेशा कुछ बोलने से पहले अल्लाह की वह्यी से रहनुमाई चाहते थे। इससे एक आम कायदा निकलता है कि कोई जहालत की बुनियाद पर बात नही करे।
(3)    दावत सिर्फ अल्लाह (سبحانه وتعالى) के रज़ा हासिल करने के लिये दी जानी चाहिए। दावत पहुंचाने वाला इस काम के बदले में कोई माद्दी फायदा (Material benefit) या ओहदा पाने की नियत नही रखता। बल्कि वह सिर्फ अल्लाह की खातिर करता है। यह उसूल की हामिले दावा सिर्फ अल्लाह की खातिर दावत दे, अगर सही से समझ लिया जाऐ, तो इससे यह बात यकीनी बन जाती है कि दाई अपने रास्ते से नही भटकता और न ही लोगों को खुश करने के लिये दलील में तब्दीली करता है।
(4)    दावत पहुंचाते वक्त सहीह फिक्र (Thought) में किसी और चीज़ की आमेज़िश (मिलावट) नहीं होनी चाहिये। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने इसकी सबसे अच्छी मिसाल पेश की। आप (صلى الله عليه وسلم) ने यह दावत पहुंचाते वक्त गुफ्तगू में शख्सि (व्य्क्तिगत) पहलू को दाखिल नही करते थे।
(5)    दावत बिना किसी समझौते के साथ देनी चाहिए। इस बात की ईजाज़त नही है कि लोगो को खुश करने के लिये पैगाम को तब्दील किया जाऐ या आरजी़ (अस्थाई) तौर पर मदद हासिल की जाऐ। यह दावत बेवाक होनी चाहिए और अक़लमन्दीि के साथ अदा की जानी चाहिए। यानी बहतरीन अस्लूब के जरिये लेकिन हक़ को पूरा-पूरा पहुंचा कर। इसके अलावा जिन अफ्कार को पहुंचाया जा रहा है, उनको मगरिबी अफ्कार (विचारो) और मेयार के पैमाने पर न जांचा जाऐ। इनको पूरी तरह से ईस्लाम से अखज़ करना चाहिए।
 (6)    एक दाई (हामिले दावत) को उन आजमाईशों और इम्तिहान का मुक़ाबिला करने के लिये तैयार रहना चाहिऐ जो दावत की मुखालिफत करने वालो की तरफ आते है। इसके लिये तैयार होने के लिये ईस्लाम के बुनियादी तसब्बुरात (विचारों) जैसे अल कजा़ वल क़दर या रिज्क अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ से है और अल तवक्कुल (अल्लाह سبحانه وتعالى पर भरोसा) वगैराह जैसे विचारो से आगाही होनी चाहिऐ। इसके साथ उनको साबिका अम्बिया (अलैहिस्सलाम) और उनके सहाबा और किस तरह से उन्होने आजमाईशें सही से भी आगही होनी चाहिये। और आखिर में दाई हज़रात को कुरआन के करीब होना चाहिए (यानी मुसलसल तिलावत, समझ कर पढ़ना और गौरो फिक्र करना)। इसके अलावा और कोई किताब नही है, जिसमें लोगो को मुतहर्रिक करने, नई रूह फूकने (पेरणा देने) और उर्जा भरने की क्षमता है।

इस्लामी पार्टी के साथ काम करना: अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हर मुसलमान पर दावत देने का फरीजा़ आयद किया है। अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने उम्मत पर यह भी फर्ज़ किया है कि उसमे कम से कम एक गिरोह होना चाहिऐ जो खै़र की तरफ बुलाऐ, यानी ईस्लाम की तरफ, ताकि मारूफ (जो कुछ भी भलाई है) का हुक्म और मुन्कर (जो कुछ भी बुराई है) से रोके। अल्लाह (سبحانه وتعالى) कुरआन में फरमाता है,
وَلْتَكُن مِّنكُمْ أُمَّةٌ يَدْعُونَ إِلَى الْخَيْرِ وَيَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ
‘‘तुममे से एक गिरोह उठे, जो अल-खैर की तरफ बुलाये, अल-मारूफ का हुक्म दे और अल-मुन्कर से रोके। यह वोह लोग जो कामयाब होंगे।” (आले इमरान: 104)
यह आयत एक गिरोह के कयाम को फर्ज़ क़रार देती है। अगर कोई खिलाफत के दोबारा क़याम के काम की फितरत को समझे, तो वोह इस नतीजे पर पहुंचेगा इस काम को नतीजाखेज़ होने के लिये मजमूई कोशिशों (Collective efforts) की जरूरत है। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने सहाबा (रज़ि0) के गिरोह के साथ काम किया ताकि कुफ्र के समाज में तब्दीली ला सके और उसे इस्लामी समाज बना सके। किसी गिरोह या गिरोहो के साथ काम करने के लिये कुछ बिन्दु है, जिन पर गौरो फिक्र करने की ज़रूरत है। ऐसा इसलिय ताकि हम किसी भी अमल को अन्जाम देने से पहले पूरी आगाही (awareness) हासिल करले। और यह जानना इसलिये भी बहुत जरूरी है क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعالى) हमसे हमारे आमाल का हिसाब लेगा कि हमने उन आमाल में उसकी ईताअत की या नही की। इसलिये किसी भी गिरोह को चुनने की ईजाज़त नही है बल्कि वोह गिरोह या गिरोहो को चुना जाये जो उपर गुजरी आयते करीमा की फर्जि़यत को पूरा करे। यह बिन्दु मुन्दरजाजे़ल है:-

(1)    यह गिरोह इस्लाम की तरफ बुलाए। अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इस आयत में लफ्ज़ (अल-खैर) इस्तेमाल किया है, जिसका मतलब इस्लाम है। इसलिए अगर वोह गिरोह राष्ट्रवावी (कौमियत की तरफ बुलाने वाले), लोकतान्त्रिक (जम्हूरियत की तरफ दावत देने वाले), पूंजीवादी, समाजवादी वगैराह हो तो वोह अल्लाह के इस हुक्म को पूरा नही करेंगे। बल्कि ऐसे गिरोहो मे शामिल होना जिनकी बुनियाद ग़ैर-इस्लामी नज़रयात (विचारों) पर हो और या वोह इनकी दावत देते हो, गुनाह का काम है। और इन नज़रियात की तरफ लोगों को बुलाना और इनके खातिर ईकट्ठा होना हराम है।

(2)    यह गिरोह सबसे अहम मसले (Vital issue) की तरफ दावत देने वाला होना चाहिए, जिसे इस्लाम ने तय किया हो। आज के दौर में ईस्लाम का सबसे अहम मसला (समस्या) खिलाफत का दोबारा क़ायम करना है। वोह खिलाफत ही है जो ईस्लाम को नाफिज़ करेगी, और इसके बिना मुस्लिम समाज के लिये यह नामुमकिन है कि वोह ईस्लाम के सभी क़वानीन पर चल सकें। खिलाफत की तारीफ (परिभाषा) में यह शामिल है कि यह एक सियासी अमल है क्योंकि इस अमल में समाज में परिवर्तन लाना शामिल है ताकि ईस्लामी सत्ता (authority) की स्थापना की जा सके और गैर-ईस्लामी ईक्तिदार को हटाया जा सके। इसलिये इस गिरोह को सियासी गिरोह या पार्टी होना चाहिए।

(3)    इस गिरोह में रूकनियत (सदस्यसता) का तरीका साफ सुथरा होना चाहिए। ऐसा देखने में आया है कि कई गिरोह अन्दरूनी फूट, टकराव और टूट कर नऐ गिरोह बनने का शिकार हो जाते है। ऐसा इसलिये होता है कि इन गिरोहो के सदस्यो का एक मुत्ताहिद मक़सद और वैचारिक समानत नही होती। अक्सर लोगों को गिरोह में इसलिये शामिल किया जाता है क्योंकि वोह किसी तरह का जोश दिखाते है और इस बात की परवाह नही की जाती की वोह कैसे नज़रियात (ideas/विचार) और मक़सद रखते है।

(4)    इस गिरोह का एक तसकीफ (तरबियत/culturing) का निज़ाम होना चाहिए। यानी उनके पास ऐसा तरीके़कार होना चाहिऐ जिसके ज़रिये वोह नऐ लोगो को समान और मजबूत विचारधारा में बांध सके और बाद में उन्हे मेम्बर बना सके। इसे तसक़ीफ के निज़ाम को बहुत संजीदगी से लेना चाहिऐ और सभी लोगो को इससे गुजा़रा जाए। इसमे इस बात का ध्यान रखा जाऐ कि उनकी शख्सियत को ईस्लामी तहजी़ब में ढाला जाऐ, उनकी नियतो और विचारो को साफ किया जाऐ, सहीह तसव्वुरात की तामीर की जाऐ और उनके अज़्रम और इरादे को मज़बूत किया जाऐ ताकि उनकी इब्तिदाई जोश और उर्जा को सही ईल्म के हुसूल और मुस्तिकिल अमल (consistency) की तरफ मोड़ा जा सकें। यह अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि कई लोग जोश के साथ इस्लाम के लिये काम करना शुरू करते है और फिर बाद में वोह बन्द कर देते है। इसकी वजह उस गिरोह में तर्बियत की कमी होती है।

(5)    यह गिरोह अपनी बात और भाषा में साफ और अपने आमाल में बेबाक होना चाहिऐ क्योंकि मारूफ का हुक्म देना और मुन्कर से रोकने के लिये एक मुस्लिम को हर गलत को चेलेन्ज करना होता है और सही पर ईस्तेक़ामत और मजबूती दिखानी होती है।

(6)    इस गिरोह को हकीकत (मौजूदा सूरतेहाल) का जामेअ (विस्ताीरपूर्वक) अन्दाज में मुताला करना चाहिए। इस्लाम इस बात को फर्ज़ करार देता है कि दावती गिरोह जिस सूरतेहाल और हकीकत (reality) में काम कर रहा होता है उसे वोह अच्छी तरह समझे। इसमें समाज में मौजूद सोच (thoughts), विचार और अवधारणाओ को समझना, काफिरो के मन्सूबो और साज़िशो और मुस्लिम ज़मीनो में उनके ऐजेन्ट हुक्मरान की हकी़क़त को समझना शामिल है। हकी़क़त को महज़ आम अन्दाज से समझने से लोग समस्या की असल जड़ को नही समझ सकते।

(7)    यह गिरोह उम्मत की सारी कमज़ोरियों और गुमराहियो के बावजूद भी उम्मत को नीची निगाहो से न देखे, न ही उम्मत का उसके साथ काम न करने के सबब या ईस्लाम पर न चलने के सबब उनसे बुरा-भला कहे। बल्कि वोह उनके होंसलो को उपर उठाने, उनमें नई जान फूंकने, उन्हे नीद से उठाने और उनकी हालत बदलने के लिये काम करे। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया, ‘‘जो कोई भी यह कहता है कि लोग बरबाद हो जाऐ तो वोह सबसे ज़्ीयादा बरबाद लोगो मे से है।” (सहीह मुस्लिम)

(8)    इस गिरोह मे एक मज़बूत माहौल होना चाहिए जो इसके अरकान (सदस्यों) को जोड़े रखे। यह माहौल बहुत साफ-सुथरा और सिर्फ अल्लाह के रजा़ हांसिल करने की बुनियाद पर बनना चाहिए। पश्चिमी देशों में हम ऐसे कई संघठनो को देखते है जो कम्पनियों की तरह काम करते है, जहॉ सदस्यो को काम करवाने के लिये हमेशा जब्र (बल) का इस्तेमाल लिया जाता है। यह ईस्लाम के तरीके से उल्टा है जहॉ एक व्यक्ति अपनी फिक्र (विचार) की शक्ति से मुतहर्रिक होकर खुशी और मर्जी़ से अपना वक्त और कोशिशें लगाता है। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने अब्दुल्लाह इब्ने जहश को एक खत लिखा, जिन्हें उन्होने एक फौजी मुहीम के अंतर्गत नखला के इलाके में कुरेश पर निगाह रखने भेजा था। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया, ‘‘अपने किसी साथी को अपने साथ ले जाने के लिये जब्र नहीं करना, और मेरे हुक्म के मुताबिक आगे बढना  उन लोगो के साथ जो तुम्हारे साथ आगे जाना चाहे।” 

यह तीन बिन्दु: ईल्म हासिल करना, दावत देना और ईस्लामी पार्टी के साथ काम करना, खिलाफत के लिये अमली तौर पर काम करने का तरीका है। इसके बाद हम यह कहेगें, यह काम उन लोगो के साथ लग कर किया जाऐ, जो मुख्लिस है और जो जन्नत में आला मकाम हांसिल करना चाहते है। अपने अज़्लम को मजबूत कर लो, क्योंकि उम्मत तब्दीली चाहती है, और इसके लिये काम करने की ज़रूरत है। अल्लाह करे हमारे आमाल का अजर अल्लाह की निगाह में ज़्यादा हो और हम उन लोगो में से हो जाऐ जो के अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) के महबूबो में से होगें। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया, ‘‘ईस्लाम की शुरूआत एक अजनबी की तरह हुई और यह फिर अजनबियत की हालत में पहुंच जायेगा तो खुशखबरी दे दो अजनबियो को”। आप से पूछा गया, “अजनबी कौन है ?”   आप (صلى الله عليه وسلم) ने जवाब दिया, ''वोह जो लोगो के भ्रष्टा होने पर उन्हेू ठीक करते है।'' (यह रिवायत अल-तबरानी ने अपनी अल-कबीर में नकल की है)
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